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________________ द्वाविशंतिभिदा भिन्नपरीषहजयोऽपि च। हेतवः संवरस्यैते सप्रपञ्चाः समन्विताः॥४। जैन धर्म में वैराग्य का खूब महत्त्व है, उसमें पाँच व्रतों के उपरान्त दश धर्मों का निरूपण विस्तार से मिलता है। जो मुनियों के धर्म हैं परन्तु गृहस्थों को भी इसका यथाशक्ति पालन करना पड़ता है। इसमें सत्य, अस्तेय, अकिंचनता, ब्रह्मचर्य, शान्ति, मार्दव, आर्जव, त्याग तथा संयम का समावेश होता है। गृहस्थों के लिए पाँच अणुव्रत, तीन गुण व्रत तथा चार शिक्षाव्रतों को मिलाकर द्वादशांग धर्म के पालन का विधान है। इनका पालन मलिनता या मिथ्या दृष्टि से करने पर ये व्रत निरर्थक हो जाते हैं। ___इस प्रकार इन जीवादि सात तत्त्वों का सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही मोक्ष का साक्षात् साधन है। जीवादिसप्ततत्त्वानामेतेषां ज्ञानसंगतम्। * श्रद्धानं तच्चरित्रं च साक्षान्मोक्षस्य साधनम् // 25 जैन दर्शन के मूल सिद्धान्त "त्रिरत्न" का हरिवंशपुराण में निरूपण के पश्चात् अब हम सूरसागर और हरिवंशपुराण में निरूपित दार्शनिक तत्त्वों तुलनात्मक अध्ययन करेंगे। सूरदास आचार्य वल्लभ के शिष्य थे। उन्होंने उनके द्वारा चित्रित शुद्धाद्वैत दर्शन को ही सूरसागर के दर्शन का मूलाधार स्वीकार किया है परन्तु अपनी मौलिकता का भी यत्र-तत्र निरूपण किया है। जीव और आत्मा : सूरसागर में वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैत वेदान्त के अनुसार ही जीव विषयक कहा गया है। जीव चैतन्य स्वरूप है तथा वह प्राणिमात्र के शरीर में व्याप्त है।२६ प्रदीप्त अग्नि से जिस प्रकार स्फुलिंगों की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार ब्रह्म की इच्छा मात्र से सत् व चित् के अंश से जीव की उत्पत्ति होती है। अतः जीव ब्रह्म का ही अंश है।२७ चेतन घट घट है या भाई ज्यों घटघट रवि प्रभा लखाई। घर उपजै बहुरोनसिजाई रवि नित रहै एक ही भाई॥२८ रवि की प्रभा जिस प्रकार प्रत्येक घट में परिलक्षित होती है, वैसे ही अक्षर ब्रह्म भी चेतन स्वरूप में प्रत्येक शरीर में विद्यमान है। वल्लभ वेदान्त के अनुसार जीव ऐश्चर्यभाव से दीन एवं पराधीन, वीर्याभाव से दुःखी, यशोभाव से दीन, श्रीअभाव से जन्ममरणादि अनेक विध दुःखों से युक्त, ज्ञानाभाव से अहंकारी, वैराग्याभाव से विषयासक्त रहता है। इस प्रकार यह जीव दीन, पराधीन एवं मायालिप्त होकर संसारचक्र में घूमता रहता है। जब वह इस अज्ञान को पहचान लेता है, तब वह चेतन स्वरूप परमात्मा को जान लेता
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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