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________________ लिए इसे कठोरतापूर्वक पालन करना होता है। ये ही मुनियों के लिए महाव्रत हैं तथा श्रावकों के लिए अणुव्रत। हरिवंशपुराणकार ने इन पाँचों व्रतों के लिए पाँच-पाँच भावनाएँ बतलाई है। सम्यक् मन, सम्यक् वचन, कायगुप्ति, भोजन का समय देखकर भोजन करना, ईर्या समिति तथा आदान-क्षेपण समिति, ये पाँच अहिंसाव्रत की भावनाएँ हैं। क्रोध, लोभ, भय तथा हास्य का त्याग करना तथा प्रशस्त वचन बोलना, ये सत्यव्रत की भावनाएँ हैं। शून्यागारावास, विमोचितावास, परोपरोधाकरण, भैक्ष्यशुद्धि और सधर्मविसंवाद ये पाँच अस्तेयव्रत की भावनाएँ हैं। स्त्रीराग, कथाश्रवण त्याग, उनके मनोहर अंगों को देखने का त्याग करना, शरीर की सजावट का त्याग करना, गरिष्ठ रस का त्याग करना एवं पूर्वकाल में भोगे हुए रति के स्मरण का त्याग करना, ये पाँच ब्रह्मचर्य व्रत की भावनाएँ हैं / पांच इन्द्रियों के इष्ट, अनिष्ट आदि विषयों में यथायोग्य रागद्वेष का त्याग, ये पाँच अपरिग्रह व्रत की भावनाएँ हैं। सुवाग्गुप्तिमनोगुप्ती स्वकाले वीक्ष्य भोजनम्। द्वे चेर्यादाननिक्षेपसमिती प्राग्व्रतस्य ताः॥ इष्टानिष्टेन्द्रियार्थेषु रागद्वेषविमुक्तयः। यथास्वं पञ्च विज्ञेयाः पञ्च महाव्रतभावनाः॥२० ___पाँच भावनाओं के पश्चात् जैन दर्शन में तीन प्रकार की गुप्तियों का उल्लेख मिलता है। "गुप्ति" से उनका तात्पर्य "रक्षा" से है। सर्वप्रथम मनोगुप्ति अर्थात् मन में हिंसा और कपट इत्यादि का न करना। दूसरी "वाग्गुप्ति" जिसें असत्यादि युक्त बोलने पर पाबन्दी तथा तीसरे प्रकार की गुप्ति, काय गुप्ति है, जिसमें चोरी न करना, किसी को कष्ट न पहुँचाना इत्यादि का समावेश होता है। जिनसेनाचार्य ने इसका स्पष्ट उल्लेख किया है, उन्होंने इसे संवर का कारण बताया है। शरीर को शास्त्रोक्त विधि से वश करना, वचन का मेल प्रकार अपरोधन करना तथा मन का सम्यक् निरोधन करना ही तीन प्रकार की गुप्ति समझना चाहिए।२ न केवल पाँच भावनाओं एवं तीन गुप्तियों का वरन् पाँच समितियों एवं दशधर्मों का उल्लेख करते हुए जिनसेनाचार्य ने इसके महत्त्व को भी दर्शाया है। तीन गुप्तियों के पश्चात् पाँच समितियों का वर्णन आता है। सावधान होकर भले प्रकार से गमन तथा आगमन, उत्तम हित योग्य आहर का ग्रहण, पदार्थ का यत्नपूर्वक ग्रहण तथा यत्नपूर्वक क्षेपण अर्थात् धरना, प्रासुक भूमि देखकर मलमूत्रादि त्याग करना-ये पाँच समितियाँ त्रिसंख्या गुप्तयः पञ्चसंख्याः समितयस्तथा। दशद्वादश धर्मानुप्रेक्षाश्चारित्रपञ्चकम्॥ 2138 -
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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