SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इन्द्रियानिन्द्रियोत्थं स्यान्मतिज्ञानमनेकधा। परोक्षमर्थसांनिध्ये प्रत्यक्षं व्यवहारिकम्॥१६. . यह मतिज्ञान भी अनेक प्रकार का है प्रत्यक्ष एवं परोक्ष है। उन्होंने मतिज्ञान के चाबीस भेद बतलाये हैं। मतिज्ञान के उपरान्त उन्होंने अवधिज्ञान का विश्लेषण किया है परन्तु श्रुत ज्ञान का उल्लेख नहीं किया है। आत्मा में एक ऐसी शक्ति मानी जाती है, जिसके द्वारा उसे इन्द्रियों के अगोचर, अतिसूक्ष्म, तिरोहित व इन्द्रिय सन्निकर्ष से परे दूरस्थ पदार्थों का भी ज्ञान हो जाता है, उसे अवधि ज्ञान कहते हैं।१० अवधि ज्ञान, कर्म के क्षयोपशय से जीव की शुद्धि होने पर देशावधि, सर्वावधि तथा परमावधि से तीन प्रकार का होता है। यह अवधिज्ञान देश-प्रत्यक्ष है तथा पुद्गल द्रव्य का विषय करता है। देश प्रत्यक्षमुदभूतो जीवशुद्धौ त्रिधावधि। देशः सर्वश्च परमः पुद्गलावधिरिष्यते॥१८ मनपर्यव ज्ञान भी देशप्रत्यक्ष ही है। अवधिज्ञान तो केवल परमाणु को जानता है जबकि पर्यवज्ञान उसके अनन्तवें भाग तक जान सकता है। अवधिज्ञान की अपेक्षा यह सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थों को विषय करता है। जैनमान्यतानुसार सर्वश्रेष्ठ ज्ञान केवलज्ञान है जिसे जिनसेनाचार्य ने अन्तिम ज्ञान के रूप में स्वीकार किया है। यह सर्वप्रत्यक्ष है, अविनाशी हैं, समस्त पदार्थों को जानने वाला है, यही मोक्ष का कारण है। पारम्पर्येण मोक्षस्य हेतुनिचतुष्टयम्। साक्षादेव भवत्येकं केवलज्ञानमव्ययम्॥१९ इन पाँचों प्रकार के ज्ञान की प्राप्ति के अनेक साधन हैं, जिनका उल्लेख हम अगले पृष्ठों में करेंगे। सम्यक् चारित्र : त्रिरत्न के अन्तिम सोपान के रूप में सम्यक् चारित्र को स्वीकार किया गया है। इसका मुक्ति के मार्ग में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके अभाव में तीर्थंकर भी सिद्ध नहीं हो सकते, वे संसार में भटक सकते हैं। इसका महत्त्व मोक्ष मार्ग में दर्शन और ज्ञान से तनिक भी कम नहीं है। जीव के बन्धक के जो पांच कारण हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। इनमें पीछे के चार कारण तो सम्यक् चारित्र से ही दूर किये जा सकते हैं परन्तु चारित्र के अनुसंधान में पाँच व्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति और चार भाव के सम्बन्ध में जानकारी होनी परमावश्यक है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच व्रत हैं, जिसे मन, वाणी और काया से पालना पड़ता है। मुनियों के
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy