________________ (1) जिस प्रकार से जीवादि पदार्थ अवस्थित है, उस प्रकार से उनका जानना सम्यग्ज्ञान (2) जो ज्ञानं वस्तु के स्वरूप को न्यूनतारहित, अधिकता रहित, विपरीतता रहित जैसा का तैसा, सन्देह रहित जानता है, उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं / 11 (3) आत्मा और अनात्मा का संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है।१२ (4) आत्मा के स्वरूप को जानना ही सम्यग्दर्शन है।१३ (5) जीवादि सप्त तत्त्वों का संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान परस्पर विरुद्ध अनेक कोटि को स्पर्श करने वाले को संशय कहते हैं। जैसे—वह सीप है या चाँदी? विपर्यय, एक कोटि के निश्चय करने वाले ज्ञान को विपर्यय कहते हैं। जैसे सीप को चाँदी जान लेना। यह क्या है? या कुछ है? केवल इतना अरुचि और अनिर्णयपूर्वक जानने को अनध्यवसाय कहते हैं। जैसे—आत्मा कुछ होगा।५ - इस भाँति सम्यग्ज्ञान की अनेक परिभाषाएँ मिलती हैं परन्तु इन सब में तात्त्विक दृष्टिकोण से एकरूपता है। उन्हें अलग-अलग ढंग से लिखने के कारण यह अनेकरूपता दिखाई देती है। सब परिभाषाओं का एक ही सार है कि मोक्ष मार्ग में प्रयोजन भूत जीवादि पदार्थों को विशेषकर आत्मा तत्त्व का संशय, विपर्यय एवं अध्यवसाय रहित ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है। लौकिक पदार्थों के ज्ञान से इसका कोई प्रयोजन नहीं है। - दर्शन और ज्ञान यह प्रकार के जीवों का स्वभाव धर्म है। यहाँ दर्शन सामान्य ज्ञान मुख्यतः पाँच प्रकार है(१) जो इन्द्रियों द्वारा मिलता है वह "मतिज्ञान"। (2) शास्त्रों और उपदेश द्वारा मिलता ज्ञान "श्रुत ज्ञान"। (3) इन्द्रियों की मदद के बिना जो प्राप्त होता है वह "अवधिज्ञान"। (4) दूसरों की. मन की अवस्था का ज्ञान "मनपर्याय ज्ञान"। (5) इन्द्रियों की मदद के बिना मिलता सम्यक्ज्ञान "केवलज्ञान"। इन्हीं ज्ञान की कक्षाओं के आधार पर जीव मोक्ष की प्राप्ति करता है। हरिवंशपुराणकार ने इस सब ज्ञानों की विस्तृत व्याख्या की है। उनके अनुसार जो ज्ञान सम्यग्दृष्टि से प्राप्त होता है, वही सम्यग्ज्ञान है तथा वह पाँच प्रकार का है। मतिज्ञान की व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा है कि पाँच इन्द्रियों तथा मन से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे "मतिज्ञान" कहते हैं। ==211%= =