________________ ___ यह सम्यग्दर्शन मोहरूपी अन्धकार के क्षय, उपशम तथा क्षयोपशम से उत्पन्न होता है। यह क्षायिक आदि के भेद से तीन प्रकार का तथा निसर्गज एवं अधिगमज के भेद से दो प्रकार का है। जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष-ये सात तत्त्व हैं, इनका अपने-अपने लक्षणों से श्रद्धा करना आवश्यक है। तच्चदर्शनमोहान्धक्षयोपशममिश्रजम्। क्षायिकाद्यं त्रिधा द्वधा निसर्गाधिगमत्वतः॥ जीवाजीवालवा बन्धसंवरौ निर्जरा तथा। . मोक्षश्च सप्त तत्त्वानि श्रद्धेयानि स्वलक्षणैः॥ इस प्रकार मोक्ष मार्ग में सम्यग्दर्शन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। यह मुक्ति महल का प्रथम सोपान है। इसके बिना ज्ञान और चारित्र का सम्यक् होना सम्भव नहीं है। जिस प्रकार से बीज के बिना वृक्ष की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फलागम सम्भव नहीं है इसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फलागम (मोक्ष) होना सम्भव नहीं है। सम्यग्दर्शन ही धर्म का मूल है, जो इससे भ्रष्ट है उसको मुक्ति की प्राप्ति होना सम्भव नहीं है। जैन मान्यतानुसार सम्यग्दर्शन ही प्राणियों का हितकारी है, इसी के आधार पर अतीत में महापुरुष मोक्ष में गये हैं और भविष्य में जायेंगे। यही सम्यग्दर्शन का सर्वश्रेष्ठ माहात्म्य है। इसके सम्बन्ध में कहा गया है कि प्राणियों, का जगत में सम्यग्दर्शन के समान हितकारी और मिथ्या दर्शन की भाँति अहितकारी कोई अन्य नहीं है। __जैन दर्शन के इसी संदर्भ में सात तत्त्वों का विवेचन मिलता है। हरिवंशपुराण ने इन्हीं सात तत्त्वों का तात्विक-विश्लेषण किया है जिसे हम आगे के पृष्ठों में देखेंगे। सम्यग्ज्ञान : ___ जैन-दर्शन में उल्लेखित त्रिरत्नों में सम्यग्दर्शन के पश्चात् दूसरा स्थान सम्यग्ज्ञान को मिलता है। ज्ञान, आत्मा का गुण है, जानना उसका पर्याय अर्थात् कार्य है। जो सम्यग्दर्शन से युक्त ज्ञान है, वही सम्यग्ज्ञान है एवं जो मिथ्या दर्शन से युक्त ज्ञान है, वह मिथ्या ज्ञान। ज्ञान का सम्यक् और मिथ्यापन का निर्णय लौकिक विषयों की सामान्य जानकारी की सच्चाई पर आधारित न होकर सम्यग्दर्शन एवं मिथ्यादर्शन की उपस्थिति के आधार पर होता है। सम्यक्त्व के द्वारा सम्यग्दर्शन की साधना हो जाने पर मोक्ष मार्ग पर बढ़ने के लिए दूसरी साधना ज्ञानोपासना है। सम्यक्दर्शन से जिन तत्त्वों में श्रद्धान उत्पन्न हुआ है उनकी विधिवत् जानकारी प्राप्त करना ज्ञान है। दर्शन और ज्ञान में यह भेद है कि दर्शन का क्षेत्र अन्तरंग है जबकि ज्ञान का क्षेत्र बहिरंग। दर्शन आत्मा की सत्ता का भाव करता है और ज्ञान बाह्य पदार्थों का बोध उत्पन्न करता है। दोनों में परस्पर कारण और कार्य का सम्बन्ध है। सम्यक्ज्ञान की अनेक परिभाषाएँ जैनागमों में उपलब्ध होती है, जिसमें कतिपय दृष्टव्य है 210