________________ श्री कृष्ण जब उद्धव से ब्रज की प्रेम विह्वल दशा तथा विरहाकुलता की कहानी सुनते हैं, तब उनके हृदय से जो उद्गार प्रस्फुटित होते हैं, वे उनके यथार्थ व्यक्तित्व के सर्वथा सफल परिचायक हैं। श्री कृष्ण उद्धव को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि उद्धौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं। हंस सुता की सुंदर कगरी अरु कुंजनि की छाहीं॥ वे सुरभी वे बच्छ दोहनी, खरिक दुहावन जाही। ग्वाल बाल मिलि करत कुलाहल, नाचत गहि-गहि बाहीं॥ यह मथुरा कंचन की नगरी, मनि मुक्ताहल जाही। जबहि सुरति आवति वर सुख की, जिय उमगत तन नाही। अनगन भाँति करी बहु-लीला, जसुदा नंद निबाही। सूरदास प्रभु रहे मीन है, यह कहि-कहि पछिताहीं॥१२० इन पंक्तियों से स्पष्ट हो जाता है कि श्री कृष्ण का चित्त ब्रज भूमि से अटका हुआ है। उनके मन में आज भी ब्रज के प्रति ममत्व एवं आकर्षण है। इस प्रकार सूरसागर में वर्णित यह प्रसंग अत्यन्त ही मार्मिक, मनोवैज्ञानिक, वाग्वैदग्ध्य से परिपूर्ण एवं सूर की मौलिक उद्भावनाओं से ओत-प्रोत हैं। सूरसागर के इस प्रसंग के बारे में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है कि-सूरदास का सबसे मर्मस्पर्शी तथा वाग्वैदग्ध्यपूर्ण अंश भ्रमरगीत है, जिसमें गोपियों की वचन-वक्रता अत्यन्त मनोहारिणी है। ऐसा सुन्दर उपालम्भ काव्य और कहीं नहीं मिलता।२१ अन्य प्रसंगों की भाँति आचार्य जिनसेन ने इस भ्रमरगीत प्रसंग का भी हरिवंशपुराण में उल्लेख नहीं किया है जबकि सूर का यह प्रसंग तो अत्यधिक विख्यात है—जो विप्रलम्भ शृंगार का उत्कृष्ट उदाहरण है। भागवत से भावसूत्र-ग्रहण कर सूर द्वारा सर्वप्रथम इस प्रसंग में लिखने के बाद हिन्दी-साहित्य में भ्रमरगीत की एक परम्परा चल पड़ी है जो आधुनिक युग तक अनेक रंगों में पल्लवित होती आयी है। कालयवन-वध :... कालयवन, गर्ग ऋषि से उत्पन्न म्लेच्छों के राजा का पुत्र था। पाण्डवों द्वारा अपमानित होने पर गर्ग ऋषि ने शिव के वरदान से इस पुत्र की प्राप्ति की। जब जरासंध ने कंस-वध का समाचार सुन कर उसका बदला लेने के लिए श्री कृष्ण के साथ युद्ध किया, वह इस युद्ध में सत्रह बार पराजित हुआ। तब वह अत्यन्त लज्जित हो गया। इस पर इसने खिस्याकर कालयवन को अपने साथ लिया जिससे मथुरावासियों को पराजित किया जा सके, क्योंकि मथुरावासी वरदान के कारण कालयवन का वध करने में असमर्थ थे।