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________________ उधर श्री कृष्ण भी बचपन के सुखपूर्वक बिताये दिनों को कैसे भूल सकते हैं? उन्हें भी समस्त ब्रजवासियों की मधुर याद सताती रहती है। एक दिन वे अपने परम सखा उद्धव को ब्रज भेजते हैं। गोपिकाएँ उद्धव को जब ब्रज की ओर आते देखती हैं, उस समय वे अत्यन्त भाव-विह्वल हो जाती हैं। वेश-साम्य होने के कारण उद्धव को थोड़े समय के लिए कृष्ण मान लिया था। परन्तु जब उद्धव का रथ नन्द के द्वार पर रुकता है तब वे उन्हें भलिभाँति जान लेती हैं एवं दुःखभार से आक्रान्त हो मूर्छित हो गिर पड़ती है। इसके पश्चात् उद्धव गोपिकाओं को कृष्ण का पत्र देते हैं। गोपियाँ अपने प्रिय के हस्ताक्षरों को देख कर भावपरायण बन जाती हैं। सूर के शब्दों में देखिए-. निरखत अंग स्याम सुन्दर के, बार बार लावति लै छाति। ... - लोचन-जल कागद मसि मिलि के, है गई स्याम-स्याम की पाती।११८ तदुपरान्त ब्रज के लोग नन्द-यशोदा उद्धव को घेर लेते हैं तथा स्याम की कुशलता के समाचार पूछते हैं। उद्धव सबको कहते हैं कि चार-पाँच दिन में बलदेव और वे यहाँ आने वाले हैं। इसके पश्चात् वे गोपियों को ज्ञान-योग एवं निर्गुण ब्रह्म की उपासना का संदेश देते हैं। इससे गोपियों का विरह और भी धधक जाता है। इस संदेश से उनके मन पर जिस प्रकार की प्रतिक्रिया होती है, उसका "भ्रमरगीत प्रसंग" में सूर ने बड़ा ही विशद एवं मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। भ्रमर को लक्ष्य बनाकर गोपियाँ कृष्ण की बेवफाई की जोरदार खबर लेती हैं। कृष्ण को वे चंचल, लम्पट, स्वार्थी, रस-लुब्ध इत्यादि सम्बोधनों से सम्बोधित करती हैं। कृष्ण व कुब्जा का नाता, गोपियों के लिए असह्य है। विरह की इतनी सूक्ष्म अभिव्यंजना सूर के अतिरिक्त अन्यत्र दुर्लभ है। उद्धव का रूखा ज्ञान गोपियों की प्रेमा-भक्ति के आगे झुक जाता है। अब उद्धव भी गोपियों के रंग में रंग कर उनका संदेशा ले मथुरा में कृष्ण के पास लौटते हैं। वे कृष्ण से कहते हैं कि आप अविलम्ब ब्रज लौट जाइये। आपके बिना सारा ब्रज विरहाग्नि में जल रहा है। हे माधव! आप उनके दु:ख को दूर करो। वे अपनी ब्रज-यात्रा का सम्पूर्ण वृत्तान्त उनको सुनाते हैं सुनिये ब्रज की दसा गुसाई। रथ की धुजा पीत पर भूषन, देखतही उठि धाई। जो तुम कही जोग की बातें, सो हम सबै बताई। श्रवन मूदि गुन कर्म तुम्हारे, प्रेम मगन मन गाई॥ औरौ कछु संदेश सखी इक, कहत दूरि लौ आई। हुतौ कछू हमहूं सौ नातौ निपट कहा बिसराई॥ सूरदास प्रभु वन विनोद करि, जे तुम गाइ चराई।. ते गाई अब ग्वाल न घेरत, मानौ भई पराई // 19 =162
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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