________________ विविधकरणदक्षी मल्लविद्यानवद्यौ कृतचलनसुवेषौ नीलपीताम्बराभ्याम्। बृहदुरसि विधायोदारसिन्दूरधूलीरभिनववनमालामालतीमुण्डमालौ॥ स्थिरमनसि विधाय ध्वंसनं कंसशत्रोश्चलचरणनिघातैर्धारिणीं क्षोभयन्तौ। सममरमतिघोरैमल्लवेषैः सवर्गः पुरमभि मथुरां तौ चेलतुर्गोपवगैः॥५३६/२९-३० जिनसेनाचार्य ने यहाँ श्री कृष्ण को महान् योद्धा स्वरूप का निरूपण किया है, सूरसागर की भाँति नंद-यशोदा की चिन्ता, बृजवासियों की व्याकुलता इत्यादि के चित्रण का हरिवंशपुराण में पूर्ण रूप से अभाव रहा है। न तो यहाँ कृष्ण को बुलाने के लिए अक्रूर ब्रज जाते हैं और न ही उनके साथ मथुरा आते हैं। परन्तु कृष्ण अपने मूल उद्देश्य की पूर्ति हेतु समय पर मथुरा को प्रयाण करते हैं। इसमें दोनों कृतियों में साम्य दिखाई देता है। रजक-वृत्तान्त : सूरसागर के अनुसार जब श्री कृष्ण एवं बलराम अक्रूर के साथ पहुंचे तो वे लीला करते मथुरा में घूम रहे थे। वहाँ भ्रमण करते हुए उन्होंने एक रंगरेज धोबी को देखा एवं उन्होंने उससे अपने अनुरूप वस्त्रों की याचना की। वह कंस का धोबी था। अतः उसने कृष्ण व बलराम को कठोर वचन कहे। उस समय श्री कृष्ण ने उस धोबी का हाथ के प्रहार से वध कर दिया एवं कंस के वस्त्रों को लूट लिया। रजक मारि हरि प्रथम ही नृप वसन लुटाए। रंग-रंग बहु भाँति के गोपिन पति राए॥९ . आगे जाने पर कृष्ण ने मथुरा के राजमार्ग पर नवयौवना कुब्जा को चन्दन-केसर आदि के पात्र ले जाते हुए देखा। उससे पूछने पर ज्ञात हुआ कि वह महाराज कंस के * अनुलेप के लिए घिसा हुआ चन्दन ले जा रही है। श्री कृष्ण ने वह चन्दन उससे माँग कर अपने शरीर पर लगा दिया तथा उन्होंने अपने हाथ की दो अंगुलियों को कुब्जा की ठुड्डी में लगाकर ऊपर उठा लिया तथा उसके पैरों को अपने पैरों से दबा दिया। कुब्जा का शरीर पहले टेढ़ा था परन्तु श्री कृष्ण ने उसे इस प्रकार सीधा कर दिया, वह रमणी हो गई कुबरी नारि सुन्दरी किन्हीं। भाव मैं बास बिनु भाव नहि पाइये, जानि हिरदै हेत भावि लीन्हीं। ग्रीव पर परसि पग पीठी तापर दियौ, उबरसी रूप परतरहि दीन्हीं॥१०० - सूरसागर में वर्णित इन दोनों घटनाओं को जिनसेनाचार्य ने उल्लेखित नहीं किया * / सूर के कृष्ण मथुरा जाने पर भी अपनी चंचलता के कारण धोबी से महाराज कंस - -