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________________ कृष्ण को कहती हैं कि पर स्त्री को छेड़ना अच्छी बात नहीं है। तुमने लोक मर्यादा के विरुद्ध बात कही है अतः ऐसे कृत्यों से रहना ही तुम्हारे अहित में है। माँगत ऐसो दान कन्हाई। अब समुझी हम बात तुम्हारी, प्रकट भई कछु धौं तरूनाई। इहि लालच अँकवारि भरत हौ, हार तेरि चोली झटकाई। अपनी ओर देखि धौं लीजे, ता पाछे करियै बरियाई॥ सखा लिए तुम घेरत पुनि-पुनि, बन भीतर सब नारि पराई। सूर स्याम ऐसी न बूझियै, इन बातनि मरजाद नसाई॥७७ अन्त में विवाद समाप्त करने के लिए कृष्ण कहते हैं कि मैं कामदेव की आज्ञा से तुमसे जीवन दान माँगने आया हूँ। तुम्हें यह मुझे देना ही होगा। यह सुन गोपियाँ अपना सर्वस्व देने के लिए व्याकुल हो गई क्योंकि उन्हें भी काम नृपति ने चोट लगाई। वे मन ही मन कहने लगी कि यह देह भी तुम्हारे लिए प्रस्तुत है। श्री कृष्ण उनका आत्मसमर्पण स्वीकार करते हैं। सूरसागर का यह वार्तालाप बड़ा ही सुन्दर बन पड़ा है। महाकवि सूर कहते हैं कि अन्तर्यामी कृष्ण ने सबके मन में मिलकर अत्यन्त सुख प्रदान किया। जब गोपियों को अपने तन का भान आया तो वन में अपने आपको देखकर वे सकुचा गईं। अंतरजामी जानि लई। मन मैं मिले सबनि सुख दीन्हौं, तब तनु की कछु सुरति भई। जब जान्यौं बन मैं हम ठाढी, तन निरख्यो मन सकुचि गई। सूरदास प्रभु अंतरजामी, गुप्तहिं जोवन-दान लयौ।७८ तदुपरान्त श्री कृष्ण समस्त बाल ग्वाल के संग दही तथा माखन खाते हैं। गोपियाँ प्रेम के साथ ग्वाल बालों को गोरस खिलाने लगती हैं। अब ये गोपियाँ भी इतनी भाव विभोर बन जाती हैं कि कृष्ण के कहने पर भी घर जाने को तैयार नहीं होती। वे कहने लगती हैं कि बिना मन घर कैसे जा सकती हैं, हमारा मन तो तुम्हारे पास है। घर तनु मन बिना नहीं जात आपु हँसि कहत हौ जू चतुरई की बात। तनहि पर मनहि राजा, जोइ करे सोइ-होइ। कही घर हम जाहि कैसे, मन धयौ तुम गोइ॥९ इसके बाद गोपिका का प्रेमोन्माद देखते ही बनता है। वे आत्म-विस्मृत अवस्था को प्राप्त कर लेती हैं। गोपियाँ कृष्ण मय होकर जड़-चेतन का अंतर भूल जाती हैं। वे -148
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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