________________ मोसों बात सुनहु ब्रज नारी। इक उपखान चलत त्रिभुवन मैं, तुमसो कहो उघारी। कबहूँ बालक मुँह न दीजिये, मुँह न दीजियै नारी।७३ गोपियाँ श्री कृष्ण की ऐसी बातें सुनकर और भी क्रुद्ध हो जाती है। वे उनके द्वारा की गई माखन चोरी तथा उखल बन्धन की बातें करके कहती हैं कि कृष्ण अब तो अपनी शरारतों को छोड़कर कुछ सभ्य बनो। तब कृष्ण अपने द्वारा गोवर्धन पर्वत उठाने इत्यादि अलौकिक बातों की चर्चा करते हैं परन्तु गोपियाँ कृष्ण की हर बात पर उपहास करती हैं। कृष्ण फिर भी उनका मार्ग रोके खड़े रहते हैं, तब वे अपने पतियों को बुलाने की धमकी देती है। श्री कृष्ण कहते हैं कि अपने घर वालों को ही नहीं, मथुरा के राजा कंस को बुला लो, मैं उसके लिए भी तैयार हूँ। इस पर गोपियाँ कहती हैं जो तुम दान माँगने वाले राजा हो तो अपने मोर मुकुट तथा पिताम्बर छोड़कर चँवर छत्रधारी किसी राजसिंहासन पर क्यों नहीं बैठते? राजधानी "नीकी" है। कृष्ण की ऐसी प्रेम भरी बातें सुनकर भोली-भाली गोपियाँ दधि-दान के लिए प्रस्तुत हो जाती हैं परन्तु अब कृष्ण कुछ और ही दान माँगते हैं लैहों दान इननि को तुम सौं मत्त गयंद, हंस हम सौं हैं, कहा दुरावति हम सौं। केहरि, कनक कलस अमृत के, कैसँ दुर दुरावती। विद्रुम हेम ब्रज के मनुका नाहिन हमहि सुनावति॥ खग, कपोत, कोकिला, कीर, खंजन, चंचल मृग जानति। मनि कंचन के चक्र जरे हैं एते पर नाहिँ मानति॥ सायक चाप तुरय बनि जति हौ लिये सबै तुम जाह। ..... चंदन चँवर सुगन्ध जहाँ तहँ केसं होत निबाहु॥५. गोपियाँ कृष्ण की इस बात को समझ नहीं पाती हैं। वे कहती है कि हमारे पास यह वस्तुएँ कहाँ हैं? तब कृष्ण उन्हें उनके अंगों के उपर्युक्त उपमानों को इस प्रकार समझाते हैं चिंकुर चमर घूघट हय-बर, बर भुव सारंग दिखराऊँ। बान कटाच्छ नैन खंजन, मृग नासा सुक उपमाऊँ। तरिवन चक्र अधर विद्रुम-छबि, दसन ब्रज-कन ठाऊँ। ग्रीव कपोत कोकिला बानी, कुच-घट-कनक सुभाऊँ। जोबन-मद रस अमृत भरे हैं, रूप रंग झलकाऊँ। अंग सुगंध बास पाटंबर, गनि-गनि तुमहिँ सुनाऊँ।७६ श्री कृष्ण की ऐसी दुराशय भरी बातें सुनकर गोपियाँ वापस झल्ला जाती हैं। वे