________________ रीती मटकी सिर पर रखे वन-वन भटकती हैं। उन्हें कुछ भी ध्यान नहीं रहता। पेड़ों को घर के द्वार समझकर दही लेने की आवाज लगाती हैं। कभी तो "दही लो" के स्थान पर "गोपाल लो":"गोपाल लो" कहती फिरती हैं। कोउ माई लेहै री गोपालहिँ। दधि को नाम स्यामसुन्दर-रस, बिसरी गयौ ब्रज-बालहिँ। मटुकी सीस फिरति ब्रज-बीथिनि बोलति बचन रसालहिँ। इस प्रसंग में गोपियों का प्रेम, रूप-क्रीड़ा और लीला की आसक्ति से प्रारम्भ होकर कुल-लोक-वेद की मर्यादा का उल्लंघन, लज्जा का परित्याग एवं सांसारिक वैभव की सर्वथा उपेक्षा करता हुआ पूर्ण आत्मसमर्पण की स्थिति की ओर अग्रसर होता है। . सूरसागर का यह प्रसंग अत्यन्त ही क्रम-बद्ध काव्यात्मक एवं संवादात्मक युक्त है। इसमें अनेक सुन्दर भावों का समावेश मिलता है जो श्रृंगार रस को अंतिम दशा में पहुँचाते हैं / सूरदास ने इस प्रसंग को विस्तार से निरूपित कर इसके महत्त्व को बढ़ाया है। प्रतीकात्मकता : दानलीला की यथार्थता यह है कि-"सच्चे दिल से हमें अपना सर्वस्व परमात्मा को अर्पण करना चाहिए।" तभी वे हमारी नौका को पार लगायेंगे। भगवान् को अपने मन का समर्पण करना है। मक्खन के समान कोमल मन को प्रभु-चिंतन में लगाने से ही अपने को स्वीकार करते हैं। निर्मल हृदय की गोपिकाएँ इसी सात्विकता को लिए हुए है। उनका प्रेम इसी निष्कलुषता पर आधारित है। इसी से गोपियाँ अन्तर्जगत में कृष्ण के साथ एकाकार हो जाती हैं एवं अलौकिक सुख की प्राप्ति करती हैं। माखन कोमल वृत्तियों का परिचायक है, ब्रह्म जीव की इन्हीं कोमल वृत्तियों को अपनी ओर आकृष्ट करता है। संक्षेप में कहे तो इस लीला के पीछे आत्मा का समर्पण तथा प्रेमोन्मत्तता का ही वास्तविक रहस्य छिपा हुआ है। हिंडोला : जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें श्री कृष्ण का गोपिकाओं के साथ झूलाझूलने का वर्णन किया गया है। जब वर्षा ऋतु में सर्वत्र मनमोहक हरियाली छा जाती है, उस समय गोपियाँ सजधज कर अपने प्रियतम कृष्ण के पास जाकर उनसे झूला-झूलने के लिए इच्छा प्रकट करती हैं। सूरदासजी ने इस लीला का बड़ा सुन्दर चित्रण किया है। सूरसागर में गोपिकाएँ कृष्ण के सामने झूला हेतु इस प्रकार प्रार्थना करती हैं बार-बार विनय करति, मुख निरखति पाउ परति। पुनि पुनि कर धरति, हरति पिय के मन काजे॥ - -