________________ तृणावर्त को कामक्रोधादि रजोगुण की आँधी का प्रतीक भी माना जा सकता है। अन्य असुरादि-वध : श्री बालकृष्ण के अलौकिक पराक्रम वर्णन में अनेक दानवों को मारने का वर्णन मिलता है। ये राक्षस ब्रज-भूमि में उपद्रव करते थे एवं अपने भयंकर स्वरूप से लोगों को डराते थे। इनमें प्रलम्बासुर, वत्सासुर, शंखचूड, वृषभासुर, केशी, व्योमासुर इत्यादि उल्लेखनीय हैं। ये सभी राक्षस कंस द्वारा कृष्ण को मारने के लिए भेजे गये थे परन्तु वे सभी कृष्ण द्वारा मारे गये। सूरसागर में बकासुर के चार पद मिलते हैं एवं अघासुर वध के भी पाँच पद वर्णित हैं। इन पदों में सूर ने बालकृष्ण की वीरता का सुन्दर चित्रण प्रस्तुत किया है। हरिवंशपुराण में वर्णित सात देवियाँ, पूतना इत्यादि अनेक राक्षसों के स्वरूप में क्रमशः कृष्ण को मारने के लिए आती हैं परन्तु उनका ही नाश होता है। धेनकासुर का प्रसंग वर्णित है कि किसी दिन कोई देवी बैल का रूप धारण कर आई। वह बैल बड़ा अहंकारी था, गोपालों की बस्ती में वह जहाँ-जहाँ दिखाई देता था, जोरदार शब्द से लोगों को डराता था, परन्तु सुन्दर कण्ठ के धारक श्री कृष्ण ने उसकी गरदन मरोड़ कर उसे नष्ट कर दिया। स गोपतिं दृप्तमशेषघोषमितस्ततो दृष्टमुदग्रघोषम्।। महार्णवं वा प्रतिपूर्णयन्तं जघान कण्ठोबलनात्सुकण्ठः॥७३५-४७ __इस प्रकार से सूरसागर तथा हरिवंशपुराण में श्री कृष्ण द्वारा अनेक दानवों को मारने का वर्णन मिलता है। सूर का यह वर्णन कृष्ण को भगवान् एवं सर्वशक्ति सम्पन्न स्वरूप प्रदान करता है जबकि जिनसेनाचार्य के वर्णन में बालकृष्ण के देवोपम सामर्थ्य का चित्रण है। ___ आज के इस बौद्धिक एवं वैज्ञानिक युग में ये चमत्कारी वर्णन किसी महान् मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा नहीं करते वरन् अनास्था उत्पन्न करने के ही निमित्त बनते हैं। सच्चे अर्थों में देखा जाय तो इन दैत्यों के वध के पीछे मानवीय विकारों को दूर करने की बात कही गई है। कवि ने इन विकारों को दूर करने हेतु रोचक कथाओं का सुन्दर स्वरूप प्रदान किया है। जैसे पूतना अज्ञान, अविद्या तथा वासना की प्रतीक है, उसी तरह ये सभी राक्षस दंभ, अहंकार, पाप, अनर्थकारी प्रवृत्तियों तथा देहाध्याय इत्यादि के प्रतीक माने जा सकते हैं। ऊखल-बन्धन तथा यमलार्जुन-उद्धार : बाल कृष्ण अत्यन्त ही चंचल तथा नटखट थे। जब उनके उपद्रव गोकुल में बढ़ गये तो यशोदा ने कृष्ण के इस व्यवहार से अप्रसन्न होकर उन्हें ऊखल से बाँध दिया। बाल कृष्ण को इस कार्य में भी लीला करनी थी। श्री कृष्ण उस ऊखल को घसीटते हुए 128==