________________ हरिवंशपुराणानुसार यह राक्षस न होकर एक पिशाची होती है जो गाड़ी का स्वरूप धारण कर बालक श्री कृष्ण के ऊपर दौड़ती आती है परन्तु उसे कृष्ण अपने दोनों पैरों द्वारा तोड़ देते हैं। अनःशरीरामपरां पिशाची स चापतन्तीं घनपादघाती। विभीर्बभंजाञ्जनशैलशोभी पृथूदयस्तां पृथकोऽपि कोऽपि॥२३ 35-44 दोनों ग्रन्थों का यह प्रसंग समानता पर आधारित है। इसमें बालकृष्ण का लोकोत्तर पराक्रम विवेचित हुआ है। कृष्ण को निर्भय, अत्यधिक शक्तियों का भण्डार और अनिर्वचनीय पुरुष के रूप में निरूपण का यह सफल प्रयास है। प्रतीक अर्थ : "शकट को एक असुर भाव में ग्रहण किया गया है। ग्रहण किए लौकिक पदार्थों को न छोड़ पाना मोहजनित असुर भाव या अभिनिवेश माना जाता है। इस व्यवहार अभिनिवेश का नाश ही शकट-भंजन है तथा इस असुर भाव का नाश श्री कृष्ण (वेद) ही कर सकते हैं।"२४ / श्री कृष्ण के पदाक्षेप से शकट के चक्र, अक्ष व जूआ इत्यादि टूट गये। भगवान् के चरण स्पर्श से जहाँ भार वाहनता नष्ट हो जाती है, वहाँ संसार व काल-चक्र को जोड़ने वाला अक्ष-दण्ड (अहंकार) भी टूट जाता है और काल-चक्र व संसार-चक्र के बन्धन नष्ट हो जाते हैं।२५ तृणावर्त-वध : सूरसागर में बालकृष्ण द्वारा एक और राक्षस मारने की कथा आती है। तृणावर्त नाम का यह दैत्य कंस का सेवक था। कंस की प्रेरणा से यह कृष्ण को मारने के लिए एक भयंकर आँधी बवंडर के रूप में नन्द-गाँव में आया। सारे ब्रज में हा-हाकार मच गया। वह बालक श्री कृष्ण को आकाश में उड़ाकर ले गया। यशोदा व्याकुल होकर 'श्याम, श्याम' पुकारने लगी। तदुपरान्त श्री कृष्ण ने उस राक्षस को धरती पर पछाड़ कर मार दिया। ... कंस द्वारा कृष्ण को मारने का यह प्रयास भी असफल गया। सूर के इस प्रसंग में कल्पनाशीलता दिखाई देती है। "तृणावर्त वध" का यह प्रसंग हरिवंशपुराण में नहीं मिलता है। प्रतीक अर्थ : तणावर्त अज्ञान का प्रतीक माना गया है। चेतन स्वरूप ब्रह्म द्वारा ही अज्ञान का नाश होता है। अज्ञान अपने आश्रय, ज्ञान स्वरूप आश्रय का आवृत्त किये रहता है और ज्ञान के सक्रिय होने पर अज्ञान तिरोहित हो जाता है।२६