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________________ इन दोनों प्रकारों की अनेक प्रतियाँ मिलती हैं जिसमें अपने-अपने ढंग से विषय का विभाजन किया गया है। सौकर्य की दृष्टि से संग्रहात्मक पाठ के स्थान पर सूर के अध्येताओं ने द्वादश स्कन्धात्मक पाठ ही अधिक ग्राह्य माना है। नागरी-प्रचारिणी सभा, काशी का स्कन्धात्मक रूप जो सर्वाधिक शुद्ध और प्रामाणिक माना जाता है, उसमें द्वादश स्कन्धों के आकार विस्तार की विवृति निम्न प्रकार से दी हैस्कन्ध पद-संख्या पृष्ठ-संख्या प्रथम (अ) विनय के पद 223 1 से 62 __ (आ) श्रीभागवत प्रसंग 63 से 114 द्वितीय 115 से 127 तृतीय 128 से 137 138 से 149 150 से 154 चतुर्थ 'P ww पंचम षष्ठ से सप्तम अष्टम नवम 149 एकादश द्वादश परिशिष्ट (1)65 . 170 से 179 180 से 254 दशम (अ) पूर्वार्द्ध 4160 255 से 1646 - (आ) उत्तरार्द्ध / 1647 से 1717 1718 से 1720 1721 से 1724 203 1 से 66 परिशिष्ट (2)66 67 से 86 इस प्रकार सूरसागर में प्रथम से द्वादश-स्कन्धों में कुल 4936 पद हैं। प्रथमस्कन्ध में विनय के पद तथा श्रीभागवत के प्रसंगों का कवि ने समावेश किया है। विस्तार की दृष्टि से देखा जाय तो दशम स्कन्ध सबसे बड़ा है जिसमें 4309 पद हैं तथा इसमें भी इसका पूर्वार्द्ध सर्वाधिक बड़ा है। अगर परिशिष्ट भागों के 473 पदों का योग करें तो सम्पूर्ण ग्रन्थ में 5409 पद होते हैं। सूर ने इस विशालकाय ग्रन्थ में मुख्यतः श्रीकृष्णलीलाओं का ही गान किया है परन्तु प्रसंगानुसार दूसरे विषयों के पद भी मिलते हैं। यहाँ हम सूरसागर के सभी स्कन्धों का संक्षेप में विहगावलोकन प्रस्तुत कर रहे हैं =709 67
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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