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________________ पुस्तक भंडार, लहरिया-सराय से उसका प्रकाशन हुआ था। इधर सन् 1981 मे मित्तलजी ने साहित्यसंस्थान, मथुरा से साहित्यलहरी का संस्करण प्रकाशित कराया था। इसके अतिरिक्त डॉ० मनमोहन गौतम ने भी एक संस्करण का प्रकाशन कराया। (3) सूरसागर : सूरदास की कीर्ति का आधार सूरसागर है। यह इनका प्रामाणिक तथा प्रमुख ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ की प्रामाणिकता "वार्ता" से भी ज्ञात होती है इसमें सूर के श्रीमद् भागवत् के आधार पर द्वादश स्कन्धों की रचना करने का उल्लेख है। सूरसागर वास्तव में सूर की सारी रचनाओं का समुच्चय है जो एक विशाल सागर की भाँति है जिसमें सूर जैसे महान् कवि ने भावनाओं तथा विचारों की मुक्ता भर दी है। सूरसागर नामकरण : चौरासी वैष्णव की वार्ता के अन्दर सूरदास की वार्ता से ज्ञात होता है कि महाप्रभु वल्लभाचार्य ने सूरदास को जब भक्तिमार्ग की दीक्षा दी तो उन्होंने सूरदास को श्रीमद् भागवत, दशमस्कन्ध के सार रूप में रचित अनुक्रमणिका और उसी स्कन्ध की रचित सुबोधिनी नामक टीका के सूक्ष्म ज्ञान से अवगत कराया था। इसके साथ ही उन्होंने उस पुरुषोत्तम के सहस्रनाम ग्रन्थ का तत्त्व भी सूरदास को समझाया था, जिसकी रचना उन्होंने सम्पूर्ण भागवत के सार रूप में की थी। इस ज्ञानराशि को पाकर सूरदास के हृदय में भागवत लीलाओं के गायन की स्फूर्ति का उद्भव हुआ। वल्लभाचार्य की कृपा से भागवत की लीलाओं का रससागर ही भक्त कवि सूर के हृदय में उमड़ पड़ा था। सूरदास के हजारों पद उस रस-सागर की लहरों की भाँति हैं, जो आज भी पाठकों को भाव-विभोर बना देते हैं। महाप्रभु वल्लभाचार्य सूर के हृदय की विशालता को लक्ष्य कर उन्हें "सागर" कहा करते थे। सूरदास की वार्ता में उल्लेख है कि "सो सागर काहे ते कहियत है? जामे सब पदारथ होई ताको सागर कहिए"। आचार्यजी द्वारा प्रदत्त उपाधि के आधार पर आगे चलकर सूरदासजी को "सागर" कहा जाने लगा तथा कालान्तर में उनके कृतित्व के लिए सूरसागर का प्रयोग हुआ। सूरदास अन्धे थे अतः उनके पदों के संकलन का कार्य उनके स्वर-सहायकों ने किया। पहले जो छोटे-छोटे संकलन तैयार हुए, उन्हें सूरपदावली और जो बड़े संकलन तैयार हुए, उन्हें सूरसागर का नाम दिया गया। पद-संकलन की दृष्टि से सूरसागर के दो रूप मिलते हैं-संग्रहात्मक तथा स्कन्धात्मक। संग्रहात्मक रूप में पदों का संकलन विषय के आधार पर किया गया है जबकि स्कन्धात्मक स्वरूप का मूलाधार श्रीमद् भागवत् है। जिस प्रकार भागवत् का प्रतिपाद्य बारह स्कन्धों में विभक्त है, उसी भाँति सूरसागर के प्रतिपाद्य को भी बारह स्कन्धों में विभक्त किया गया है। -908
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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