________________ 78 : जैनधर्म के सम्प्रदाय उपलब्ध हैं', यथा-आचार्य धर्मघोषसूरि, देवसूरि, चक्रेश्वरसूरि, समुद्रघोषसूरि, विमलगणि, देवभद्रसूरि तथा तिलकाचार्य आदि / अन्य गच्छों की तुलना में इस गच्छ की विशेषता यह रही कि इस गच्छ के अनुयायी प्रतिमापूजा फलों से नहीं करते थे। तथा पाक्षिक प्रतिक्रमण चतुर्दशी के स्थान पर पूर्णिमा को करते थे। 26. चन्द्रगछ : . चन्द्रकुल से उत्पन्न इस गच्छ के संस्थापक आचार्य चन्द्रसूरि माने जाते हैं। इस गच्छ का उल्लेख करने वाले दो लेख जालोर और सिरोही से प्राप्त होते हैं, जो 1125 ई० और 1182 ई० के हैं। 1235 ई० के एक अन्य अभिलेख में इस गच्छ के नामोल्लेख के साथ ही इस गच्छ के प्रभावक आचार्य परमानन्दसूरि और उनके शिष्य रत्नप्रभुसूरि का भो उल्लेख मिलता है। इस गच्छ के सन्दर्भ में और अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। .27. अंचल गच्छ: अंचल गच्छ का नामोल्लेख करने वाला प्राचीनतम साक्ष्य 1206 ई. का एक प्रतिमा लेख है। इसके अलावा 1276 ई० से 1614 ई. तक के लगभग 30 प्रतिमा लेखों में भी इस गच्छ का उल्लेख उपलब्ध है। इस गच्छ का "अंचल गच्छ" नाम पड़ने की एक कथा इस प्रकार है कि एक बार कोती नामक किसी व्यापारी ने प्रतिक्रमण के समय मुंह पर मुंहपत्ती नहीं लगाकर अंचल ( वस्त्र के टुकड़े) का प्रयोग किया था। यह देखकर कुमारपाल ने अपने गुरु विजयचन्द से ऐसा करने का कारण पूछा तो गुरु ने इस नये पक्ष के बारे में समझाया, कहते हैं तभी से कुमार१. प्रतिष्ठा लेख संग्रह, क्रमांक 158, 359, 361, 709, 765 2. Jainism in Rajasthan, page 59 3. मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म, पृष्ठ 87 4- (क) अबुंदाचल प्रदक्षिणा जैन लेख संदोह, भाग 5, क्रमांक 24, (ख) Uttam Kamal Jain muni-Jain Sects and schools. P.53 5. श्री जैन प्रतिमा लेख संग्रह, क्रमांक 308 6. प्रतिष्ठा लेख संग्रह, परिशिष्ट 2, पृ० 222