________________ जैनधर्म के सम्प्रदाय : 77. पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं तथापि साहित्यिक साक्ष्यों के अभाव में इसगच्छ के संबंध में विशेष जानकारी ज्ञात नहीं हो सकी है। 23. बृहत तपागच्छ : इस गच्छ को तपागच्छ की ही एक शाखा माना जाता है, किन्तु यह उचित प्रतीत नहीं होता है क्योंकि इस गच्छ के आचार्य हेमचन्द्र का उल्लख 1163 ई. के एक प्रतिमा लेख में मिलता है। जबकि तपागच्छ की उत्पत्ति 1228 ई० हुई थी। इस आधार पर यह तो कहा हो जा सकता है कि बहत् तपागच्छ, तपागच्छ से पूर्व ही अस्तित्व में था। 1354 ई० से 1835 ई. तक के लगभग 50 मूर्तिलेखों में इस गच्छका उल्लेख हुआ है। इस गच्छ का एक अन्य नाम "वृद्धतपा" भोः मिलता है। __ १२वीं शताब्दी से १९वीं शताब्दी तक लगभग 700 वर्षों तक अस्तित्व में रहकर भो इस गच्छ के आचार्यों ने कोई विशेष साहित्यिकयोगदान नहीं देकर स्वयं को मात्र नतन जिनालयों के निर्माण एवं नवोन जिन-प्रतिमाओं को प्रतिष्ठा करवाने तक ही सीमित रखा, इसलिए इस गच्छ की विशेष मान्यतायें ज्ञात नहीं हो सकी हैं / 24. धारा गच्छ: राजस्थान में सिरोही के अजितनाथ मन्दिर में उपलब्ध 1177 ई०. के एक मात्र प्रतिमालेख में इस गच्छ का उल्लेख उपलब्ध है। पर्याप्त अभिलेखोय एवं साहित्यिक साक्ष्यों के अभाव में इस गच्छ के सबंध में भी कोई विशेष जानकारी ज्ञात नहीं हो सकी है। 25. पूर्णिमिया गच्छ और सार्षपूणिमिया गच्छ : * इस गच्छ की उत्पत्ति 1102 ई० में हुई थी।५ 1375 ई० से 1476.. ई० तक के. 5 प्रतिमालेखों में इस गच्छ के कई प्रभावक आचार्यों के नाम 1. श्री जैन प्रतिमा लेख संग्रह, क्रमांक 85 2. नाहर, पुरनचन्द-जैन लेख संग्रह, भाग 2, क्रमांक 1194 3. श्री जैन प्रतिमा लेख संग्रह, पृष्ठ 43-45 4. प्रतिष्ठा लेख संग्रह, क्रमांक 36 5. श्रमण भगवान महावीर, भाग 5, खंड 2, पृष्ठ० 23; उद्धृत-मध्यकालोना राजस्थान में जैन धर्म, पृ० 96