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________________ "76 : जैनधर्म के सम्प्रदाय सूरि, सोमतिलकसूरि, सोमचन्द्रसूरि, गुणरत्नसूरि, मुनिसिंहसूरि, शोल. रत्नसूरि, आणंदप्रभसूरि और मुनिरत्नसूरि आदि / उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर जहां एक ओर यह स्पष्ट होता है / कि यह गच्छ १३वीं शताब्दी के प्रारम्भ अथवा मध्य में कभी अस्तित्व में आया होगा, वहीं दूसरी ओर विक्रम संवत् की १७वीं शताब्दी के पश्चात् इस गच्छ से सम्बन्धित साक्ष्यों का सर्वथा अभाव है। इस आधार पर यह मानना उपयुक्त होगा कि 400 वर्ष की अवधि तक अस्तित्व में रहने के पश्चात् १७वीं शताब्दी के बाद इस गच्छ का स्वतन्त्र अस्तित्व समाप्त / हो गया होगा और इसके अनुयायी उस समय में विद्यमान विविध गच्छों में सम्मिलित हो गये होंगे। ___इस गच्छ को विशेष मान्यतायें क्या थीं? यह उल्लेख हम आगे यथास्थान . करेंगे। सामान्यतया इस गच्छ के अनुयायियों को एक विशिष्टता यह थी कि ये क्षेत्रपाल (भैरव) की पूजा का निषेध करते थे। 21. भावदेवाचार्य गच्छ : __इस मच्छ का प्रारम्भ आचार्य भावदेव से होना माना जाता है। 1157 ई० के एक प्रतिमा लेख में इस गच्छ का उल्लेख उपलब्ध होता है।२ इस गच्छ को उत्पत्ति कब एवं कहां हुई तथा इस गच्छ की मान्यताएँ क्या थीं ? इत्यादि प्रश्न साक्ष्यों के अभाव में अनुत्तरित हैं। 22. ब्रह्माण गच्छ : इस गच्छ का उत्पत्ति स्थल राजस्थान के सिरोही में स्थित ब्रह्माणक ( वरमाण तीर्थ ) को माना जाता है। इस गच्छ के आचार्य प्रद्युम्नसूरि का नामोल्लेख 1160 ई० और ११८५ई. के लेखों में हुआ है। 1160 ई० - से 1511 ई० तक के लगभग 50 प्रतिमा लेखों में इस गच्छ का उल्लेख उपलब्ध होता है। इन लेखों में विमलसूरि, बुद्धिसागरसूरि, उदयप्रभसूरि आदि आचार्यों के नाम पुनः पुनः आये हैं। यद्यपि अभिलेखीय साक्ष्य 1. मध्यकालीन राजस्थान में जैन धर्म, पृ० 95 2. प्रतिष्ठालेख संग्रह, क्रमांक 24 3. (क) श्री जैन प्रतिमालेख संग्रह, पृ० 53-54 (ख) प्रतिष्ठा लेख संग्रह, परिशिष्ट 2, पृ० 226 .
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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