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________________ जैनधर्म के सम्प्रक्षय : 79 पाल भी महपत्ती के स्थान पर अंचल का ही प्रयोग करने लगा। इस प्रकार मुंहपत्तो के स्थान पर अंचल ( उत्तरीय के एक छोर ) का प्रयोग करने के कारण ही इस गच्छ का नाम अंचल गच्छ पड़ा है। वर्तमान समय में इस गच्छ में दो आचार्य एवं लगभग 250 साधु-साध्वियाँ हैं। 28. तपागच्छ : ___ उपलब्ध साहित्यिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि जगचन्द्रसूरि की कठोर -तस्या से प्रभावित होकर तत्कालीन मेवाड़ नरेश जैत्रसिंह ने 1228 ई. में उन्हें “तपा" नामक उपाधि से अलंकृत किया था। इसी कारण से इनका गच्छ तपागच्छ नाम से विख्यात हो गया / 2 अन्य गच्छों को तरह तपागच्छ से भी कई उपशाखाएँ निकली हैं। कर्नल माईल्स ने तपागच्छ.की निम्न शाखाएं बतलाई हैं 1. विजयदेवसूरि तपाशाखा, 2. विजयराजसूरि तपा शाखा, 3. कमल कलश तपा शाखा, 4. वृहत् पोसाल तपा शाखा. 5. लघु पोसाल तपा शाखा, 6. सागर गच्छ तपा शाखा, 7. कुतुबपुरा गच्छ तपा शाखा, 8. विजयानन्दसूरि तपा शाखा, 9. विजयरत्नसूरि तपा शाखा, 10. आगमीय तपा शाखा, 11: ब्राह्मी तपा शाखा और 12. नागौरी तपा शाखा / उपलब्ध अभिलेखीय साक्ष्यों में तपागच्छ को निम्नलिखित शाखाओं का भी उल्लेख मिलता है.. 1. वृद्ध तपा शाखा, 2. विजय तपा शाखा, 3. चन्दकुल तपाशाखा और. 4. संविघ्न तपा शाखा / - आचार्य सुधर्मा से लेकर वर्तमान समय तक की जो आचार्य परंपरा इस गच्छ को माम्य है, उसका विस्तृत उल्लेख "श्रीमद्रराजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्था में हुआ है। विस्तारभय के कारण हम वह विवरण यहाँ नहीं दे तपागच्छ की विविध मान्यताएँ अन्य गच्छों से कई बातों में भिन्न .. .1. श्रमण भगवान महावीर, भाग 5, खंड 2, स्थविरावली, पृ० 65 उद्धृत-मध्यकालीन राजस्थान में जैन धर्म पृ० 94-15 2. जैनलेख संग्रह, भाग 2, क्रमांक 1194 3. Jain sects and schools, P. 60" 5. मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म, 6 5. श्रीमद्रराजेन्द्रसूरिस्मारक या 11144651
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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