________________ जैनापर्म के सम्प्रदाय : 67 1. षट्विधावश्यकविवरण की दाता प्रशस्ति (लेखन समय 1228 ई०) 2. महावीरचरित्र की दाता प्रशस्ति (लेखन समय 1267 ई.) 3. परिशिष्टपर्व के प्रतिलेखन को दाता प्रशस्ति(लेखन समय 1422 ई०) 4. कल्पसूत्र के प्रतिलेखन की दाता प्रशस्ति (लेखन समय 1529 ई०) 5. भोजचरित्र के प्रतिलेखन की दाता प्रशस्ति (लेखन समय 1539 ई०) 6. षट्पंचासिकास्तवन के प्रतिलेखन की दाता प्रशस्ति (लेखन समय 1593 ई०) १०वीं शताब्दी में उत्पन्न हुए इस गच्छ का गौरवपूर्ण अस्तित्व १७वीं-१८वीं शताब्दी तक बना रहा, तत्पश्चात् इस गच्छ के अनुयायी तपागच्छ में सम्मिलित हो गये। 3. धर्मघोषगच्छ : श्वेताम्बर परम्परा में चन्द्रकुल का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इस कुल से समय-समय पर अनेक शाखाएं-उपशाखाएँ, निकली हैं, जो बाद में विविध गच्छों के रूप में अस्तित्व में आयीं। १०वीं शताब्दी के आसपास चन्द्रकुल की एक शाखा धर्मघोषगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई। आचार्य धर्मघोषसूरि इस गच्छ,के प्रथम प्रभावक आचार्य माने जाते हैं। धर्मघोषगच्छ की ऐतिहासिक जानकारी के लिए साहित्यिक एवं अभिलेखीय दोनों प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध होते हैं / साहित्यिक साक्ष्य के रूप में ग्रन्थ प्रशस्तियों, प्रतिलिपि प्रशस्तियों तथा राजगच्छ की पट्टावली में इस गच्छ का उल्लेख हुआ है। अभिलेखीय साक्ष्यों में 1247 ई० सें 1534 ई. तक के लगभग 200 लेख मिलते हैं, जो प्रायः जिनप्रतिमाओं पर उत्कीर्ण हैं। इनके आधार पर इस गच्छ के मुनिजनों की साहित्य सेवा, तीर्थोद्धार, नूतन जिनालयों के निर्माण एवं जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा आदि कराने की जानकारी मिलती है। - उपलब्ध अभिलेखों में इस गच्छ के निम्नलिखित आचार्यों के नाम प्राप्त होते हैं__ चन्द्रसूरि, भुवनचंद्रसूरि, धर्मघोषसूरि, देवेन्द्रसूरि, आनन्दसूरि, मुनिचंद्रसूरि, गुप्तचंद्रसूरि, ज्ञानचंद्रसूरि आदि / 1. त्रिपुटी महाराज-जैन परम्परानो इतिहास, भाग 1, पृ० 558-569 2. डॉ० शिवप्रसाद-धर्मघोषगच्छ का संक्षिप्त इतिहास, - उद्धृत-श्रमण, जनवरी-मार्च 1990, पृ० 62-102 3. वही, पृ० 62-102