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________________ जैनधर्म के सम्प्रदाय : 55 के प्रसंग में विस्तारपूर्वक करेंगे। विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार महावीर निर्वाण के छः सौ नौ वर्ष पश्चात् बोटिक शिवभूति द्वारा बोटिक मत की उत्पत्ति हुई। वे मुनि के लिये वस्त्र त्याग ( अचेलता) आवश्यक मानते थे। उनके अनुसार समर्थ मुनि को अचेल ( नग्न ) रहना चाहिए, क्योंकि अचेलता ( नग्नता ) ही उत्सर्ग मार्ग है। वस्त्रग्रहण करना तो आपवादिक मार्ग है। चैत्यवासी प्रथा : चौथी शताब्दी के लगभग जैन धर्म में चैत्यवासी प्रथा भी विकसित हो चुकी थी। आचार्य धर्मसागरजी ने चैत्यवासी प्रथा का उद्भव काल 355 ई० माना है / 2 मुनि कल्याणविजयजी के अनुसार इससे पूर्व ही यह प्रथा प्रारम्भ हो गई थी, किन्तु :55 ई० तक तो यह बहुत ही व्या. पक रूप से स्थापित हो गई। इस प्रथा के श्रमण चंत्यों एवं मठों में रहते थे। प्रतिमा पूजा में श्रावक लोग जो देव-द्रव्य चढ़ाते थे, उसका वे उपभोग करते थे। वे दिन में दो-तीन बार भोजन करते थे और भोजन में सचित्त द्रव्य का भी उपभोग करते थे। वे रंग-बिरंगे तथा सुगन्धित वस्त्र पहनते थे तथा स्नान-श्रृंगार आदि करते थे। इतना ही नहीं वे मुहर्त आदि निकालते थे तथा लोगों को भभूत आदि भी देते थे। तन्त्र-मन्त्र आदि के वे जानकार होते थे तथा ताबीज आदि भी बनाते थे / वस्तुतः चैत्यवासी श्रमणों का आचार जैन शास्त्रों में उल्लिखित श्रमणाचार से कोई संगति नहीं रखता है। ...श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में पांचवीं-छठी शताब्दी के बाद से चैत्यवास पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो गया था और अपरिग्रहो जैन श्रमण चाहे वे सचेल परम्परा के हों या अचेल परम्परा के, मठाधीश बन गये थे। चैत्यवासी प्रथा के विरुद्ध सर्वप्रथम दिगम्बर परम्परा में छठी शताब्दी के लगभग आचार्य कुन्दकुन्द ने शुद्धाचार का बिगुल बजाया था। दूसरी ओर श्वेताम्बर परम्परा में आठवीं शताब्दी के लगभग आचार्य हरिभद्र ने इन मठाधीश जैन मुनियों को खुब खबर ली, किन्तु कोई भी इन्हें नामशेष नहीं कर सके।५ सुविहित मुनियों के साथ-साथ दोनों ही परम्पराओं में चैत्यवासी प्रथा भी अपने ढंग से चलती रही। 1. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2550-2609 2. प्रेमी, नाथुराम-जैन साहित्य और इतिहास, पृष्ठ 351 3. वही, पृ० 351 4. लिंगपाहुड-अष्टपाहुड, गाथा 4-21 5. संबोष प्रकरण ( हरिभद्रसूरि ), पत्र 13-15
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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