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________________ 54 : जैनधर्म के सम्प्रदाय 7. गोष्ठामाहिल : ___ महावीर निर्वाण के पांच सौ चौरासी वर्ष पश्चात् हुए सातवें निक के रूप में गोष्ठामाहिल का उल्लेख उपलब्ध होता है। जैन सिद्धान्त के अनुसार कर्म जोव के साथ बंधते हैं। महावीर को मान्यता थी कि कर्म पुद्गल और आत्म-प्रदेश उसी प्रकार एक-दूसरे में समाहित होकर रहते हैं जिस प्रकार लौह-पिण्ड में अग्नि समाहित होकर रहता है। किन्तु गोष्ठामाहिल का कहना था कि कर्मवर्गणा के पुद्गल आत्म-प्रदेशों का स्पर्श मात्र करते हैं, वे उनके साथ उसी प्रकार एकीभूत नहीं होते जिस प्रकार सर्प के शरीर से केंचुली एकीभूत नहीं होतो।२ गोष्ठामाहिल का यह कथन “अबद्धिकवाद" के नाम से जाना जाता है.। आचार्य कुन्दकुन्द का मन्तव्य भी अबद्धिकवाद से निकटता रखता है। __इन सातों निह्नवों में से जमालि, रोहगुप्त और गोष्ठामाहिल-ये तीनों निह्नव अन्तिम समय तक महावीर परम्परा से अलग रहे और अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते रहे, जबकि शेष चारों निह्नवों ने महावीर के विचारों में सन्देह तो किया, किन्तु कुछ समय पश्चात् जब उनकी शंका का समाधान हो गया तो वे पुनः महावोर के संघ में सम्मिलित हो गये। शिवभूति निह्नव : __ स्थानांगसूत्र और औपपातिकसूत्र आदि आगम ग्रन्थों में सात निह्नवों का हो नामोल्लेख उपलब्ध होता है, किन्तु उत्तराध्ययननियुक्ति एवं विशेषावश्यकभाष्य में आठवें निहव के रूप में शिवभूति का उल्लेख हुआ है। श्वेताम्बर परम्परा का तो यह भी मानना है कि शिवभूति निह्नव से ही दिगम्बर परम्परा की उत्पत्ति हुई है। इस कथन की ऐतिहासिक सत्यता कितनी है ? यह चर्चा हम दिगम्बर सम्प्रदाय को उत्पत्ति 1. (क) स्थानांगसूत्र 7 / 140-141 (ख) औपपातिकसूत्र, 122 (ग) उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा 166 (घ) आवश्यकभाष्य, गाथा 141 (ङ) विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2509 2. (क) औपपातिकसूत्र, 122 व्याख्या-मधुकर मुनि (ख) उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा 175-176 (ग) विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2510-2549 3. (क) उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा 178 (ख) विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2551
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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