________________ 56 : जैनधर्म के सम्प्रदाय जैनधर्म में सम्प्रदाय विभाजन का जो रूप सामने आया है उसमें न तो निह्नव कारण बने हैं और न ही चैत्यवासी प्रथा के श्रमण / चैत्यवासी प्रथा जैनधर्म में सम्प्रदाय विभाजन के पूर्व ही अस्तित्व में आ चुकी थी और बाद में जब जैनधर्म श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय परम्पराओं में विभक्त हो गया तो चैत्यवासी प्रथा के श्रमण तो इन सभी परम्पराओं में भी बने रहे। ८वीं शताब्दी के बाद तो चैत्यवासी श्रमणों के आचार में उत्तरोत्तर शिथिलता बढ़ती गई और चैत्यालय शिथिलाचार के अड्डे बन गये / चैत्यवासी प्रथा का अस्तित्व लगभग १५वीं शताब्दी तक रहा, इन्हीं से आगे चलकर श्वेताम्बर परम्परा में यतियों तथा दिगम्बर परम्परा में भट्टारकों का विकास हुआ। सम्प्रदाय विभाजन : महावीर के केवलज्ञान प्राप्त करने के चौदहवें वर्ष से लेकर उनके निर्वाण प्राप्त करने के पाँच सौ चौरासी वर्ष पश्चात् तक जैन परम्परा : में जो वैचारिक मतभेद उत्पन्न हुए उनकी चर्चा हमने पूर्व में सात निह्नवों के रूप में की है, किन्तु इन वैचारिक मतभेदों के कारण जैनधर्म में विभिन्न सम्प्रदायों की उत्पत्ति नहीं हो सकी थी। महावीर निर्वाण के पांच सौ चौरासी वर्ष पश्चात् कब, किस प्रकार एवं किन कारणों से जैन संघ विभिन्न सम्प्रदाओं में विभक्त हो गया तथा श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय सम्प्रदाय अस्तित्व में आये तथा इन अलग-अलग सम्प्रदायों की क्या अलग-अलग मान्यताएं बनीं ? इत्यादि चर्चा हम आगे करेंगे। श्वेताम्बर सम्प्रदाय : श्वेताम्बर परम्परा को मान्यता के अनुसार महावीर के समय में श्रमणों में सचेल एवं अचेल या स्थविरकल्पी और जिनकल्पी दोनों प्रकार की श्रमण परम्पराएं अस्तित्व में थीं। यह महावीर का प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं सहिष्णु दृष्टि थी जो एक ही संघ में ऐसा द्विविध कल्प होते हुए भी लम्बे समय तक उनकी परम्परा को कोई विभाजित नहीं कर सका, किन्तु अधिक समय तक ऐसा द्विविध कल्प एक संघ में चलना सम्भव नहीं था इसलिये जब सचेलता और अचेलता के विवाद के कारण यह संघ विभाजित हुआ तो जो श्रमण सचेलता के पोषक थे, वे श्वेताम्बर कहे जाने लगे और जिन्होंने अचेलता का पक्ष लिया, वे दिगम्बर कहलाये। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के श्रमण-श्रमणो श्वेत वस्त्र धारण करते हैं / दर्शन