________________ 50 : जैनधर्म के सम्प्रदाय के सिद्धान्तानुसार आहार दूं / मित्रश्री का यह कथन सुनकर तिष्यगुप्त अपनी भूल को समझ गया और पुनः महावीर के संघ में सम्मिलित हो गया।' 3. आषाढभूति के शिष्य : - महावीर निर्वाण के दो सौ चौदह वर्ष पश्चात् तीसरे निह्नव के रूप में आचार्य आषाढभूति के शिष्यों का उल्लेख मिलता है। इनका सिद्धांत "अव्यक्तवाद" के नाम से जाना जाता है। अव्यक्तवाद की उत्पत्ति के सन्दर्भ में कहा जाता है कि आचार्य आषाढभूति अपने शिष्यों को आगाढ़योग की साधना करवा रहे थे कि हृदयाघात से उनकी मृत्यु हो गई। मरकर वे "नलिनीगुल्म' नामक विमान में देव हुए / देव होते ही अवधि ज्ञान से उन्होंने उपयोग लगाया कि मेरे शिष्यों की आगाढयोग साधना अधूरी रह जाएगी। तब उन्होंने 'नलिनीगुल्म' से आकर पुनः अपने मृत शरीर में प्रविष्ठ होकर शिष्यों को साधना पूरी करवाई। साधना पूरो करवाने के पश्चात् उन्होंने अपने शिष्यों को कहा कि अमुक रात्रि को में कालधर्म को प्राप्त हो गया था, किन्तु तुम्हारो साधना पूर्ण करवाने हेतु मैंने अपने मृत शरीर में पुनः प्रवेश किया था। इस अवधि में असंयत होते हुए भी मैंने तुमसे वन्दन करवाया, इसलिये मुझें क्षमा करें। यह कर आचार्य आषाढ जब पुनः देवलोक में चले गये तो उनके शिष्य सोचने लगे-कौन जानता है कि यह साधु है या देव ? यह संयत है या असंयत? इस आधार पर तो किसी के विषय में कुछ भी व्यक्त नहीं किया जा सकता अर्थात् सब कुछ अव्यक्त है। यह मानकर उन्होंने परस्पर वन्दन करना भी छोड़ दिया। इस पर स्थविरों ने उन्हें कहा कि किसी संयत के विषय में देव होने को शंका तब तक उचित नहीं है जब तक कि देव अपना रूप बताकर कहे कि मैं देव है। इसी प्रकार जब कोई साधु यह कहे कि में साधु हैं तो आपका उसके विषय में शंका करना ठोक नहीं है / क्या देव वचन ही सत्य है ? साधु के सत्य वचन सत्य नहीं? जो आपने परस्पर 1. (क) विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2355 (ख) श्री पट्टावली पराग संग्रह, पृष्ठ 70-71 2. ( क ) स्थानांगसत्र, 7 / 140-141 ( ख ) औपपातिकसूत्र, 122 (ग ) उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा 165-169 (घ) विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2356-2388