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________________ जैनधर्म के सम्प्रदाय : 49 ने अपने 'बहुतरवाद' सिद्धान्त का त्याग नहीं किया और वह अन्त तक अपने सिद्धान्त पर दृढ़ रहा / 2. तिष्यगुप्त : महावीर के केवलो होने के सौलह वर्ष पश्चात् उनके एक अन्य शिष्य तिष्यगुप्त ने उनके जीवप्रदेशी सम्बन्धी विचारों से असहमति प्रकट की थी। महावीर के अनुसार आत्म-प्रदेशों के पिण्ड में से एक भी प्रदेश कम हो तो उसको जीव नहीं कहा जा सकता, क्योंकि सम्पूर्ण लोकाकाशप्रदेशतुल्य प्रदेश वाला जीव ही 'जीव' नाम से जाना जाता है। किन्तु तिष्यगुप्त महावीर के इस विचार से सहमत नहीं था / उसका कहना था कि जब अन्तिम प्रदेश के अभाव में जीव 'जीव' नहीं है तो इससे तो यही प्रतिफलित होता है कि एक अन्तिम प्रदेश ही जीव है, शेष प्रदेश जीव नहीं है।' तिष्यगुप्त का यह कथन 'जीवप्रादेशिकवाद' के नाम से जाना जाता है। तिष्यगुप्त को उसके गुरु ने कहा कि तुम्हारा कथन सही मानने पर तो जीव का ही अभाव मानना पड़ेगा / तुम्हारे मत से तो अन्त्य जीव-प्रदेश को भी अजीव मानना पड़ेगा, क्योंकि अन्य प्रदेशों से इसका कोई भेद नहीं है। ऐसे अनेक वक्तव्यों से तिष्यगप्त को उसके गरु ने समझाया, किन्तु उसने अपना दुराग्रह नहीं छोड़ा, तब गुरु ने उसे अपने संघ से पृथक कर दिया / तिष्यगुप्त स्वतन्त्र विचरण करते हुए एक बार आमलकल्पा नगरी पहुंचा। वहां उसे महावीर के 'मित्रश्री' नामक उपासक ने अपने घर आने का निमन्त्रण दिया। निमन्त्रण प्राप्त कर तिष्यगुप्त कुछ साधुओं के साथ मित्रश्री के घर गया। मित्रश्री तिष्यगुप्त को प्रतिबोध देना चाहता था। उसने तिष्यगुप्त सहित सभी साधुओं को आसन पर बिठाया और अनेक प्रकार के खाद्य व्यंजन लाकर उनका एकएक दाना उनके पात्र में रखा। यह देखकर साधु बोले-हे श्रावक ! क्यों हमारा मजाक कर रहे हो ? तब मित्रश्री ने कहा-मैंने तो आपके सिद्धान्तानुसार ही आपको आहार दिया है। यदि आप कहें तो महावीर - 1. (क) औपपातिकसूत्र, 122 व्याख्या-मधुकर मुनि (ख) विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2336-2355 2. (क) स्थानांगसूत्र , 7/140-141 (ख) औपपातिकसूत्र, 122 (ग) उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा 165, 168 (घ) आवश्यकभाष्य, गाथा 127 / (ङ) विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2301
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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