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________________ 40: जैनधर्म के सम्प्रदाय है कि नन्दों के काल (ई० पू० चतुर्थ शताब्दी) में भी जिनप्रतिमाएँ . बनती थीं। लोहानीपुर से एक जिनप्रतिमा प्राप्त हुई है जो मौर्यकालीन ('ई० पू० ३री शती) है। मथुरा में भी ई० पू० प्रथम शताब्दी से ही लेख-युवत जिनप्रतिमाएँ मिलने लगती हैं। जैन साहित्य के अतिरिक्त जैन मूर्तियाँ भी विविध जैन सम्प्रदायों के उद्भव एवं विकास को समझने में सहायक हैं। ६ठी-७वीं शताब्दी से श्वेताम्बर और दिगम्बर तीर्थङ्कर प्रतिमाएं भिन्न रूपों में बनने लगी थीं। उनको लक्षणगत विशेषताओं के आधार पर हम यह निर्धारित कर सकते हैं कि कौन-सी प्रतिमा श्वेताम्बर है और कौन-सी दिगम्बर ? श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में जिनप्रतिमा के चक्षु खुले हुए प्रदर्शित करने की परम्परा है जबकि दिगम्बर परम्परा में जिनप्रतिमा के चक्षु अर्द्ध निमिलित ही दर्शाये जाते हैं। परवर्ती श्वेताम्बर प्रतिमाओं में लंगोट का अंकन भी पाया जाता है। पन्द्रहवीं शताब्दी से जो भी श्वेताम्बर आचार्य एवं मुनि प्रतिमाएँ उपलब्ध होती हैं, उन सभी में मुनियों को चोलपट्टक, उत्तरीय आदि के साथ दिखाया जाता है। ज्ञातव्य है कि दिगम्बर परम्परा की कुछ जिनमूर्तियाँ जो ग्वालियर किले पर उत्कीर्ण हैं, उनके चक्षु खुले हैं। जिनप्रतिमाओं के नीचे जो अभिलेख उपलब्ध होते हैं उनसे हमें मुख्य रूप से उनके प्रतिष्ठाचार्यों एवं उनके गण, कुल, अन्वय और गच्छ आदि की जानकारी मिल जाती है। इस प्रकार जैन मूर्तियों पर उत्कीर्ण अभिलेख भी जैनधर्म के विभिन्न सम्प्रदायों एवं उपसम्प्रदायों के इतिहास को समझने के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। जिनप्रतिमाओं के अतिरिक्त आचार्य, उपाध्याय और मुनि प्रतिमाएँ भी उपलब्ध होती हैं। इन प्रतिमाओं की वेशभूषा एवं लक्षणगत विशेषताओं से भी हमें विभिन्न सम्प्रदायों को विकास कथा को समझने में सहायता मिलती है / उदाहरण के रूप में श्वेताम्बर परम्परा में वस्त्र, पात्र आदि का विकास किस प्रकार क्रमिक रूप से हुआ है, यह समझने हेतु मथुरा की मुनि प्रतिमाएँ विशेष उपयोगी हैं। मथुरा की इन प्रतिमाओं में हम पाते हैं कि एक ओर मुनि नग्न हैं तो दूसरी ओर उसके हाथ में कम्बल और मुखवस्त्रिका है। इसी प्रकार एक अन्य मुनि प्रतिमा में हम यह भी देखते हैं कि मुनि नग्न है किन्तु उसके एक हाथ में मयूर पिच्छी तथा दूसरे हाथ में पात्र-युक्त झोली भी है। साथ ही इन प्रति१. जैन, डॉ० सागरमल-तत्त्वार्थसूत्र और उसको परम्परा, पृष्ठ 146
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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