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________________ जैनधर्म का उद्भव और विकास : 35 नि० सं० 565 तक बतलाया गया है। उक्त ग्रन्थ में इन आचार्यों के नामोल्लेख के साथ-साथ इनके पूर्व एवं अंग आगम सम्बन्धी ज्ञान का उल्लेख भी किया गया है। ___ श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं को मान्य आचार्यों की इन नामावलियों को देखने से ज्ञात होता है कि दोनों परम्पराओं में प्रारम्भिक तोन आचार्य गणधर गोतम, आर्य सुधर्मा और आर्य जम्बू के नाम समान रूप से मान्य हैं, तत्पश्चात् आर्य विष्णु, आर्य यशोभद्र, आर्य भद्रबाहु आदि के कुछ नामों में समानता तो है, किन्तु क्रम आदि भिन्न हैं। इससे यही प्रतिफलित होता है कि आचार्यों को लेकर श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में भिन्नता है, किन्तु दोनों परम्पराओं में वी० नि० सं० 600 के पूर्व तक जैनधर्म में किसी प्रकार के सम्प्रदाय विभाजन की कोई चर्चा नहीं हुई है। इस आधार पर यह मानना चाहिए कि उस समय तक जैनधर्म विविध सम्प्रदायों में विभाजित नहीं हुआ, यद्यपि गण, कुल एवं शाखा आदि के भेद अस्तित्व में आ गये थे। इस प्रकार यह विदित होता है कि जैनधर्म में सम्प्रदाय बहलता परवर्ती विकास का परिणाम है। साथ ही यह भी स्पष्ट होता है कि ऋषभदेव से लेकर महावीर तक धार्मिक एवं आचार सम्बन्धी जो-जो भी परिवर्तन हुए हैं, वे सभी परिवर्तन तीर्थंकरों एवं आचार्यों की देशकालगत परिस्थितियों के आधार पर विकसित होकर हुए हैं। कारण यह है कि परिवर्तन चाहे धार्मिक हो, आचार सम्बन्धी हो अथवा संघ व्यवस्था सम्बन्धी हो, वे देशकालगत परिस्थितियों एवं पारस्परिक प्रभाव से प्रभा'वित होते हैं / प्रस्तुत अध्याय में दिये गये विवेचन से यह परिलक्षित होता कि जैन धर्मदर्शन और आचार स्थिर न होकर गतिशील ( Dynamic ) * रहे हैं।
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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