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________________ 26 : जैनधर्म के सम्प्रदाय और महावीर की आचारगत मान्यताओं के भेद को स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे। 1. सचेलकत्व और अचेलकत्व : __ जैन परंपरा में आज श्वेतांबर और दिगंबर-ये जो दो भिन्न रूप पाये जाते हैं, वह वस्तुतः पार्श्व और महावीर की पृथक-पृथक परंपरा के कारण ही है / एक ओर जहाँ पार्श्व सचेल (सवस्त्र) परंपरा के पोषण हैं वहीं दूसरी ओर महावीर अचेल (निर्वस्त्र) परंपरा के पोषक हैं। उत्तराध्ययनसूत्र के केशी-गोतम संवाद में महावीर को अचेल धर्म का और पार्श्व को सचेल धर्म का प्रतिपादक कहा गया है।' __सचेलकत्व और अचेलकत्व रूप इस द्विविध कल्प को और अधिक स्पष्ट करते हुए प्रो० सागरमल जैन लिखते हैं कि उत्तराध्ययनसूत्र में पार्श्व की वस्त्र व्यवस्था के सन्दर्भ में “सन्तरूत्तरो" शब्द आया है। श्वेतांबर आचार्यों ने इसका अर्थ विशिष्ट मूल्यवान् एवं बहुरंगी वस्त्र किया है, किन्तु यह बात इस शब्द के मूल अर्थ से संगति नहीं रखती है। यदि हम इस शब्द के मूल अर्थ को देखें तो ज्ञात होता है कि इसका अर्थ किसी भी स्थिति में रंगोन अथवा मूल्यवान् वस्त्र नहीं है। इसका स्पष्ट अर्थ है-अन्तरवासक और उत्तरीय / इससे यही प्रतिफलित होता है कि. पार्श्वपरंपरा के साधु एक अन्तरवासक और एक उत्तरीय अथवा ओढने का वस्त्र रखते थे। एक शाटकधारी निर्ग्रन्थों के जो उल्लेख महावीर की परंपरा में मिलते हैं, वे महावीर और पार्श्व की विचारधारा के समन्वय का ही परिणाम है। 2. चातुर्याम और पंच महाव्रत : पार्व और महावीर की परंपरा का एक महत्त्वपूर्ण अन्तर चातुर्याम और पंच महाव्रत रूप धर्म का है। सूत्रकृतांगसूत्र', स्थानांगसूत्र, समवायांगसूत्र", उत्तराध्ययनसूत्र', आवश्यकनियुक्ति और ऋषिभाषित 1. उत्तराध्ययनसूत्र, 23 / 28-33 2. अर्हत् पार्श्व और उनको परम्परा, पृ० 28-30 3. सूत्रकृतांगसूत्र, 27 / 872 4. स्थानांगसूत्र, 4 / 136 5. समवायांगसूत्र, 25 / 166 6. उत्तराध्ययनसूत्र, 23 / 21-27 7. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 236 8. इसिभासियाई, अध्याय 31
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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