________________ जैनधर्म का उद्भव और विकास : 25 श्वेताम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थ उत्तराध्ययनसूत्र में विभिन्न तीर्थकरों के समय का मानव स्वभाव इस प्रकार बतलाया गया है - "पुरिमा उज्जुजडा उ, वक्कजडा य पच्छिमा / मज्झिमा उज्जुपण्णा उ, तेण धम्मे दुहा कए / "1 अर्थात् प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के समय मनुष्य सरल किन्तु मन्द बुद्धि वाले थे तथा अन्तिम तीर्थंकर महावीर के समय में मनुष्य कुटिल एवं मंदबुद्धि वाले थे और (पाश्र्व आदि) मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के समय में मनुष्य सरल और समझदार होते थे। अतः उनको आचारगत मान्यताएं भी भिन्न-भिन्न हुई। यहाँ हम देखते हैं कि ऋषभदेव और महावीर के समय का मानव स्वभाव पार्श्व आदि मध्यवर्ती 22 तीर्थंकरों के समय के मानव स्वभाव से भिन्न था। महावोर और ऋषभदेव के समय के मानव स्वभाव में आंशिक समानता और आंशिक भिन्नता दोनों थी। दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य ग्रन्य मूलाचार में विभिन्न तीथंकरों के समय का मानव स्वभाव इस प्रकार उल्लिखित है "मज्झिमया दिढबुद्धि एयग्गमणा अमोहलक्खा य / तरा हु जह्माचरंति तं गरहंता वि सुज्झति / / पुरिमचरिमादु जह्मा चलचित्ता चेव मोहलक्खा य / तो सव्वपडिक्कमणं अंधलयघोडय दिळंतो।"२ ..' अर्थात् मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के समय में मानव दृढ़धुद्धि वाले, एकाग्रमन वाले तथा अमूढमन वाले होते थे, किन्तु ऋषभदेव और महावीर के समय में मानव चलचित्त वाले तथा मूढमन वाले होते थे / यही कारण था कि तीर्थंकरों के आचार-नियमों में भिन्नताएं रहीं। पाव और महावोर को मान्यता में भेद : श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परंपराओं के मान्य ग्रन्थों में मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों को आचारगत मान्यताएँ एक-सी बतलाई गई हैं, इस. लिए हम पार्श्व को उन सबका प्रतिनिधि मानकर यहाँ चर्चा करेंगे। इसो प्रकार ऋषभ और महावीर की आचारगत मान्यताएँ भी लगभग समान रही हैं इसलिए हम महावीर को उनका प्रतिनिधि मानकर यहाँ पार्श्व 1. उत्तराध्ययनसूत्र, 23 / 26 2. मूलाचार, गाथा 631, 632