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________________ जैनधर्म का उद्भव और विकास : 27 आदि ग्रन्थों में ऐसा उल्लेख है कि पार्श्वनाथ ने चातुर्याम तथा महावीर ने पंचमहाव्रत रूप धर्म की प्ररूपणा को थी। समवायांगसूत्र में उल्लिखित पार्श्व के चातुर्याम से ऐसा प्रतीत होता है कि पार्श्व की परंपरा में परिग्रह व्रत में ही ब्रह्मचर्य व्रत समाहित था / ज्ञाताधर्मकथासूत्र में पुण्डरीक द्वारा चातुर्याम धर्म स्वोकार करने का कथन उल्लिखित है / ' राजप्रश्नोयसूत्र में ऐसा उल्लेख है कि केशीकुमार श्रमग ने चित्तसारथी को चातुर्याम धर्म का उपदेश दिया। ज्ञातव्य है कि केशीकुमार श्रमण पार्श्वनाथ के अनुयायो माने जाते हैं। 3. प्रतिक्रमण प्ररूपणा की भिन्नता: महावीर की परंपरानुसार दैनिक कार्य करते हुए जाने-अनजाने में भी कोई दोष लगा हो अथवा न लगा हो, तो भी प्रत्येक साधु-साध्वो को प्रातःकाल एवं सायंकाल नियमित रूप से प्रतिक्रमण करना ही होता है, किन्तु पार्श्व को परम्परा में कोई दोष लगने पर ही प्रतिक्रमण करने का विधान था। पार्श्व और महावीर की प्रतिक्रमण प्ररूपणा संबंधी उक्त मान्यता भेद को पुष्टि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं के मान्य ग्रन्थों से हो जाती है। ___ श्वेताम्बर परंपरा के मान्य ग्रन्थ सूत्रकृतांगसूत्र व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र तथा आवश्यकनियुक्ति में तथा दिगम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थ मूलाचार में महावीर के धर्म को सप्रतिक्रमण धर्म बतलाया गया है। 1. ज्ञाताधर्मकथाङ्ग, 19 / 23 2. राजप्रश्नीयसूत्र, 219 3. "तुब्भं अंतिए चाउज्जामातो धम्मातो पंचमहव्वतियं / . सपडिक्कमणं धम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए // " -सूत्रकृतांगसूत्र, 2/7/872 . 4. "सपडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरइ / " -व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, 1/9/23 (2) 5. "सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स / मझिमयाणं जिणाणं कारणजाए पडिक्कमणं // " -आवश्यकनियुक्ति, गाथा 1258 6. "सपरिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स। अवराहे पडिक्कमणं मज्झिमयाणं जिणवराणं // " -मूलाचार, गाथा 628
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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