________________ 204 : जैनधर्म के सम्प्रदाय उपासकदशांगसूत्र में स्तेनाहृत, तस्करप्रयोग, विरुद्ध राज्यातिक्रम, कूटतुला कूटमाण और तत्प्रतिरूपकव्यवहार को इस व्रत के अतिचार माने हैं।' तत्त्वार्थसूत्र में स्तेनप्रयोग, स्तेन-आहृतादान, विरुद्धराज्यातिक्रम, हीनाधिक मानोन्मान और प्रतिरूपकव्यवहार को अस्तेय अणुव्रत के अतिचार गिनाये हैं।२ समन्तभद्र ने रत्नकरण्डश्रावकाचार में विरुद्धराज्यातिक्रम के स्थान पर विलोप शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु उसका भी फलितार्थ राजकीय कानून का उल्लंघन करना ही है। सोमदेव ने उपासकाध्ययन में सत्याणुव्रत से पहले अचौर्याणुव्रत की चर्चा को है तथा बाट तराज का कमती-बढ़ती रखना, चोरी का उपाय बतलाना, चोरो का माल खरीदना, देश में युद्ध छिड़ जाने पर पदार्थों का संग्रह करके रखना-ये अचौर्याणुव्रत के अतिचार माने हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि अस्तेयव्रत के अतिचारों को लेकर आचार्य सोमदेव का दृष्टिकोण अन्य आचार्यों से कुछ भिन्न है। 4. स्वदारसंतोष परिमाणवत: धावक का यह व्रत ब्रह्मचर्य अणुव्रत के नाम से जाना जाता है / 'श्रावक अपने आचरण करने योग्य नियमों को ध्यान में रखता हुआ यह व्रत भी ग्रहण करता है कि मैं अपनी विवाहिता पत्नी के अतिरिक्त अन्य किसी स्त्री के साथ किसी तरह का मैथुन सम्बन्ध नहीं रखूगा / स्वदार-सतोष परिमाण व्रत ग्रहण करने से श्रावक कामवासना से पूर्ण निवृत्त तो नहीं हो जाता है, किन्तु संयमित अवश्य होता है। श्रावक और श्राविका दोनों ही इस व्रत को. ग्रहण करके अपने धर्म का निर्वाह करते हैं। रत्नकरण्डकश्रावकाचार", सागारधर्मामृत, सर्वार्थसिद्धि तथा 1. "तयाणंतरं च णं थूलगस्स अदिण्णादानवेरमणस्स पंच अइयारा जाणियव्वा न समारियव्वा / तं जहा-तेणाहडे, तस्करप्पओगे, विरुद्ध रज्जाइक्कमे, कूडतुल्ल-कूडमाणे, तप्पडिरूवगववहारे।" -उवासगदसाओ, 1147 2. तत्त्वार्थसूत्र, 7 / 21 3. रलकरण्डकश्रावकाचार, श्लोक 3212 4. उपासकाध्ययन, श्लोक 370 5. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, श्लोक 3313 6. सागारधर्मामृत, 4 / 52 7. सर्वार्थसिद्धि, 7 / 20