SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विभिन्न सम्प्रदायों की श्रावकाचार सम्बन्धो मान्यताएं : 205: कार्तिकेयानुप्रेक्षा' आदि ग्रन्थों में परस्त्री के साथ मैथुन सम्बन्ध नहीं रखना ब्रह्मचर्य-अणुव्रत माना है, किन्तु सोमदेव ने उपासकाध्ययन में विवाहिता स्त्री और वेश्या के अलावा अन्य स्त्रियों को माता, बहिन या पुत्री मानना ब्रह्मचर्याणुव्रत माना है। आचार्य सोमदेव का यह कथन अकारण नहीं है। वस्तुतः इस व्रत के लिए स्वदारसंतोष और परदार-- निवृत्ति दोनों शब्द प्रयुक्त हुए हैं। स्वदारसंतोष का अर्थ तो अपनी पत्नी में हो सन्तुष्ट रहना है किन्तु सोमदेव जैसे आचार्यों ने परदारनिवृत्ति का शाब्दिक अर्थ दूसरों की पत्नी से निवृत्त रहना किया है / इसी कारण उन्होंने वेश्याएँ अथवा खरीदी गई स्त्री के साथ मैथुन सम्बन्ध रखने को इस व्रत का निषेध नहीं माना है किन्तु यह अर्थ इस व्रत को मूल भावना के अनुकूल नहीं है इसलिए अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य किसी स्त्री के साथ किसी तरह का मैथुन सम्बन्ध नहीं रखना हो स्वदारसंतोषव्रत माना जाता है। परदारनिवृत्ति शब्द को भी इसी अर्थ में समझना चाहिए। वसुनन्दिश्रावकाचार में स्थूल ब्रह्मचारी के लिए अष्टमी,. चतुर्दशी आदि पर्व के दिनों में स्त्रीसेवन तथा अनंगक्रीड़ा का सदैव त्याग करने का जो कथन किया है, वह श्रावक की काम-वासना को संयमित करने के लिए हो है। अतिचार: स्वदारसन्तोष परिमाण व्रत के पांच अतिचार बताये गये हैं। उपासकदशांगसूत्र में इत्वरिपरिग्रहोतागमन; अपरिग्रहोतागमन, अनंगकोडा, पर-विवाहकरण तथा कामभोगतीव्राभिलाषा-ये पांच अतिचार माने हैं। तत्त्वार्थसूत्र में परविवाहकरण, इत्वरिपरिग्रहोतागमन, अपरिग्रहोतागमन, 1. कात्तिकेयानुप्रेक्षा, 338 2. उपासकाध्ययन, श्लोक 405 3. "पव्वेसु इत्थिसेवा अणंगकोडा सया विवज्जतो। थूलयबंभयारी जिणेहि भणिमओ पवयणम्मि // " -वसुनन्दिश्रावकाचार, श्लोक 212 4. “तयाणंतरं च णंसदार-सन्तोसिए पंच अइयारा जाणियव्वा न समारियव्वा / तं जहा-इत्तरियपरिग्गहियागमणे, अप्परिग्गहियागमणे, अणंगकीडा, परविवाहकरणे, कामभोगतिग्वाभिलासे / " -उवासपदसामओ 148
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy