________________ विभिन्न सम्प्रदायों की श्रमणाचार सम्बन्धी मान्यताएँ : 193 ग्रहण करने का भी उल्लेख मिलता है, इन बारह वर्षों में समाधिमरण ग्रहण करने वाला साधक किस प्रकार की साधना करता है, कैसे वह अपना समय बीताता है, इत्यादि बातों को लेकर दोनों परम्पराओं में कुछ अन्तर है। यह चर्चा हमने अपनी पुस्तक "महापच्चक्खाण-पइण्णयं" को भूमिका में कुछ विस्तारपूर्वक की है।' ___ श्वेताम्बर परम्परा के मान्य आगम उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार बारह वर्ष के पहले चार वर्षों में व्यक्ति दुग्ध आदि विकृतियों (रसों) का त्याग करता है तथा दूसरे चार वर्षों में वह विविध प्रकार के तप करता है, फिर दो वर्षों तक वह एकान्तर तप करता है। ग्यारहवें वर्ष के पहले छः महिनों तक कोई भी अतिविशिष्ट तप (तेला आदि) करने का निषेध किया गया है, तत्पश्चात् बाद के छः महनों में अतिविशिष्ट तप करने को कहा है अथवा इस पूरे वर्ष में आयंबिल तप करने को कहा गया है। बारहवें वर्ष में पूरे वर्ष तक कोटि-सहित अर्थात् निरन्तर आचाम्ल-आयम्बिल करके फिर मुनि को पक्ष या एक माह का निराहार तप-अनशन करने को कहा है। दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य ग्रन्थ भगवती आराधना में बारह वर्षीय समाधिमरण व्रत ग्रहण करने का कथन इस प्रकार उल्लिखित है-पहले चार वर्ष नाना प्रकार के तप करके काय-क्लेषों को अल्प करके बिताना / तथा दूसरे चार वर्षों में भोजन में समस्त प्रकार के रसों का त्याग करना / शेष चार वर्षों में दो वर्ष कांजी और रस व्यंजनों से रहित भोजन करना तथा बाद के दो वर्षों में एक वर्ष केवल काँजो आहार लेना और बारहवें वर्ष के प्रथम छः महीने मध्यम तप तथा अन्तिम छः महीने उत्कृष्ट तप करके समय व्यतीत करना चाहिए। . दोनों ग्रन्थों में मुख्य अन्तर इस प्रकार है-उत्तराध्ययनसूत्र में पहले चार वर्षों में सरस भोजन के त्याग का निर्देश है, वहीं भगवती आराधना में काय-क्लेषों को अल्प करने का निर्देश है। दूसरे चार वर्षों में उत्तराध्ययनसूत्र में विविध प्रकार के तप करने का निर्देश है, जबकि भगवती आराधना में रस रहित भोजन लेने का निर्देश है। बाद के दो वर्षों में जहाँ उत्तराध्ययनसूत्र में एकान्तर तप करने का निर्देश है, वहीं भगवती 1. सिसोदिया, सुरेश-महापच्चक्खाणपइण्णयं, भूमिका पृष्ठ 6-7 2. उत्तराध्ययनसूत्र, 36 / 252-255 3. भगवती आराधना, गाथा 254-256