________________ 192 बिनधर्म के सम्ममय समाधिमरण : ___ श्रमण जीवन का अन्तिम लक्ष्य समधिमरणपूर्वक मृत्यु ग्रहण करना है / जीवन की अन्तिम वेला में श्रमण द्वारा समभावपूर्वक जो मृत्यु ग्रहण की जाती है, वह समाधिमरण है। समाधिमरण, यावज्जीवन एवं एत्वेरिक-इन दो रूपों में ग्रहण की जाती है। यावज्जीवन का अर्थ जीवन पर्यन्त के लिए तथा एत्वरिक का अर्थ किसी का विशेष के लिए है। जैन धर्म में समाधिमरण को अत्यन्त आदरपूर्ण स्थान मिला है। प्रत्येक जैन मतावलम्बी चाहे वह श्रमण हो या श्रावक, समाधिमरण प्राप्त करने की इच्छा रखता है। जैन ग्रन्थों में कहा गया है कि समाधिमरण के द्वारा व्यक्ति केवल्य या निर्वाण को प्राप्त कर सकता है। पं० आशापर ने सागारवमित में स्पष्ट कहा है कि समाधिमरण त्रिरत्न प्राप्ति का साधन है।' जैन परम्परा में त्रिरत्न को ही मोक्ष का साधन कहा है। श्रमण वर्ग को सांसारिक वस्तुओं के प्रति मोह एवं ममत्व नहीं होता है इसलिए वे समत्व की साधना करके समाधिमरणे व्रत को पूर्ण कर लेते हैं, क्योंकि कहा गया है कि समाधिमरण वही ग्रहण कर सकता है, जिसके कषाय अत्यल्य हों। व्यक्ति का सबसे ज्यादा ममत्व अपने शरीर के प्रति ही होता है और समाधिमरण की प्रक्रिया में व्यक्ति अपने इसी ममत्व का त्याग करता है। शरीर के प्रति ममत्व का त्याग कर देने से वह राग-द्वेष से मुक्त हो जाता है। राग-द्वेष से मुक्त होने के कारण वह सांसारिक बन्धन में नहीं पड़ता है, अपितु निलिप्त भाव से अपने समीप आने वाली मृत्यु का स्वागत करता है। इस तरह भय रहित होकर साधक मृत्यु को बरण करता है। समाधिमरण की सामान्य विधि श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में समान है / दोनों परम्पराओं का मानना है कि समाधिमरण लेने वाला साधक किसी शान्त स्थान पर जीवों से रहित भूमि पर उपलब्ध संस्तारक को बिछाकर उस पर आसीन होकर एकाग्रचित्त से ध्यान करते हुए आने वाली मृत्यु की प्रतीक्षा करता है, उस समय उसके मन में किसी तरह का प्रमाद नहीं होता है / दोनों परम्पराओं में बारह वर्षीय समाधिमरण व्रत 1. गार पार्मामृत, 528