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________________ विभिन्न सम्प्रदार्यों को श्रमणाचार सम्बन्धी मान्यताएं : 191 (1) देवसिक (दिन के अन्त में किया जाने वाला प्रतिक्रमण), (2) रात्रिक (रात्रि के अन्त में किया जाने वाला प्रतिक्रमग), (3) पाक्षिक (पक्ष-पन्द्रह दिन पश्चात् किया जाने वाला प्रतिक्रमण), (4) चातुर्मासिक (चातुर्मास के पश्चात् किया जाने वाला प्रतिक्रमण), (5) सांवत्सरिक (वर्ष के अन्त में किया जाने वाला प्रतिक्रमण)। इनके साथ-साथ ईर्यापथिक प्रतिक्रमण का भी उल्लेख मिलता है। यहां यह जिज्ञासा की जा सकती है कि जब श्रमण प्रतिदिन प्रातःकाल और सायंकाल प्रतिक्रमण कर लेता है तो पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवस्सरिक प्रतिक्रमण को क्या आवश्यकता रह जाती है ? इस जिज्ञासा के समाधान में हम कहना चाहेंगे कि यह सही है कि प्रतिदिन प्रातःकाल और सायंकाल प्रतिक्रमण करके साधक अपने दोषों से निवृत्त हो जाता है फिर भी यदि कहीं कोई.असावधानी रह गई हो तो पाक्षिक, चातुर्मासिक और . सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करके वह अपने दोषों से निवृत्त होता है। पर्व के दिनों में प्रतिक्रमण करने का यह कथन प्रतिक्रमण को उपयोगिता को हो स्पष्ट करता है। श्रमण को शुभ-अशुभ कर्मों से सदेव विलग करने के लिए हो काल की दृष्टि से प्रतिक्रमण के इतने भेद किये गए हैं। दिगम्बर परम्परा में श्रमण के अट्ठाईस मूलगुणों में प्रतिक्रमण को षडावश्यक के अन्तर्गत माना है, इसी से इसकी महत्ता स्पष्ट हो जाती है। श्वेताम्बर परम्परा में यद्यपि प्रतिक्रमण को श्रमण के मूलगुणों में नहीं . गिना गया है तथापि इस परम्परा के श्रमण भी प्रतिक्रमण को मूलगुणों के तुल्य ही मानते हैं तथा उसी अनुसार प्रतिक्रमण करते भी हैं। ' अतिचारों की आलोचना करने के लिए श्रमण गुरु के समक्ष विनय सहित अपना अपराध निवेदन करता है तथा “मिच्छामि दुक्कडं" रूप प्रतिक्रमण पाठ का उच्चारण करके ज्ञात-अज्ञात समस्त दोषों से अपने को विलग करता है। प्रचलन में हम यह देखते हैं कि भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों की प्रतिक्रमण विधि भो भिन्न-भिन्न है इसलिए उसकी अवधि में भी अन्तर है / प्रतिक्रमण को विधि एवं अवधि में अन्तर भले हो हो, किन्तु वस्तुतः दोनों परम्पराओं के श्रमण अपने दोषों से निवृत्त होने के लिए ही प्रतिक्रमण करते हैं। .. 1. इच्छामि गमि काउस्सगं जो मे देवसिओ अइयारो....... ........."समणाणं जोगाणं जं खंडियं जं विराहियं तस्स मिच्छामि दुक्कडं / . .. -आवश्यकसूत्र, सामायिक अध्ययन, पृ० 10-11 :
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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