________________ 148 : लचर्म के समय उनमें रजोहरण का विशिष्ट महत्व है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं के श्रमण रजोहरण अवश्य रखते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में ओघा, चरवला, गोछा आदि रजोहरण के प्रचलित नाम हैं। इस परम्परा में रजोहरण ऊन का बना होता है। दिगम्बर परम्परा में रजोहरण के लिए पिच्छी शब्द प्रयुक्त हुआ है। पिच्छी सामान्यतया मयूरपंखों से बनी होती है। श्रमण कोई भी क्रिया करे, चाहे वह सोये, उठे, बैठे, खाना खाये या . गमनागमन करे, प्रत्येक स्थिति में सूक्ष्म जीवों की हिंसा होने की संभावना बनी रहती है इसलिए श्रमण कोई भी क्रिया करने से पूर्व उस वस्तु अथवा स्थान की प्रतिलेखना अवश्य करता है ताकि जीव हिंसा नहीं हो / यह प्रतिलेखना रजोहरण से की जाती है। उत्तराध्ययनसूत्र में तो रजोहरण की भी प्रतिलेखना करने को कहा गया है ताकि कथंचित उसमें कोई सूक्ष्म जीव रह जाए तो उसकी भी हिंसा नहीं हो। दिगम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थ भगवतो आराधना और मूलाचार में पिच्छिका का विस्तारपूर्वक कथन किया गया है। भगवती आराधना में पिच्छिका को मुनि विषयक विश्वास दिलाने वाला चिह्न माना है और कहा गया है कि इससे जीव दया पाली जाती है / मूलाचार में कहा गया है कि पिच्छिका के बिना श्रमण से जीव हिंसा हो ही जाती है।' षड्दर्शनसमुच्चय की गुणरत्न टीका में कहा है-काष्ठा संघ के श्रमण गोपिच्छी (चामर ) धारण करते हैं, मूलसंघ के श्रमण मयूर फिच्छी धारण करते हैं तथा माथुरसंघ के श्रमण न तो गोपिच्छी रखते हैं और न ही मयूर पिच्छी, अतः के निविच्छिक कहे गये हैं। मुखवस्त्रिका : श्रमण जो भी उपकरण धारण करता है, वह संयम की रक्षा के लिए ही होता है / जीव हिंसा से बचने के लिए श्रमण मुखवस्त्रिका ( मुहपत्ती) 1. उत्तराध्ययतसूत्र, 26 / 23 2. भगवती आराधना, गाथा 97-98 3. मूलाचार, गाथा 913-914 4. "काष्ठासंड्धे चमरोबालैः पिच्छिका, मूलसंड्थे माधूरपिच्छ:पिच्छिाका / माथुरसंङघं मूलतोऽपि पिच्छिका नादृता गोप्यां मायूरपिच्छिका / " -षड्दर्शनतनुश्चय, पृ१३६१