________________ 186 : जैनधर्म के सम्प्रदाय श्रमणी को चार वस्त्र रखने की अनुमति दी गई है।' ___ आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में वस्त्रैषणा नामक एक स्वतन्त्र अध्ययन है जिसमें श्रमण-श्रमणी के वस्त्र ग्रहण करने, धारण करने, वस्त्रों के प्रकार, वस्त्रों के परिमाण, बहुमूल्य वस्त्र ग्रहण के निषेध तथा वस्त्र ग्रहण करने से पूर्व प्रतिलेखना आदि करने का विधान है। __ दिगम्बर परम्परा में अचेलकता को श्रमण का मूलगुण माना है इसलिए इस परम्परा के श्रमण पूर्णतः नग्न ही रहते हैं। मूलाचार में वट्टकेर ने कहा है-वस्त्र, चर्म और वल्कलों ( वृक्ष की छाल ) अथवा पत्तों आदि से शरीर को नहीं ढकना, सभी प्रकार के आभूषण एवं परिग्रह से रहित निर्ग्रन्थ वेश में रहना जगत में पूज्य अचेलकत्व नामक मूलगुण है। भगवती आराधना में कहा है यदि श्रमण वस्त्र मात्र का त्याग. करने पर भी दूसरे परिग्रहों से युक्त है तो उसे संयत नहीं कहा जा सकता, अतः वस्त्र के साथ-साथ सभी प्रकार के परिग्रह का त्याग कर देना ही अचेलकत्व है। इस प्रकार स्पष्ट है कि दिगम्बर परम्परा में श्रमण के लिए वस्त्र प्रहण करने की अनुमति नहीं दी गई है किन्तु इस परम्परा में भो आर्यिकाएँ श्वेताम्बर श्रमणियों की तरह ही श्वेत वस्त्र धारण करती हैं। पात्र: जिस उपकरण में श्रमण भोजन-पानी ग्रहण करता है, वह पात्र है। आचारांगसूत्र में तरुण व बलिष्ठ श्रमण को केवल एक ही पात्र रखने की अनुमति दी गई है। आचारांग वृत्तिकार कहते हैं कि जो श्रमण तरुण 1. "जा णिग्गंथी सा चत्तारि संघाडिओ धारेज्जा" -आचारांगसूत्र, 2 / 5 / 11553 2. विस्तृत विवेचन हेतु दृष्टव्य है-आचारांगसूत्र, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, पंचम अध्ययन, प्रथम-द्वितीय उद्देशक 3. “वत्थाजिणवक्केण य अहवा पत्ताइणा असंवरणं / णिन्भूसण णिग्गंथं अच्चेल्लक्क जगदि पूज्जं // " -मूलाचार, गाथा 30 4. भगवती आराधना, गाथा 1124 5. आचारांगसत्र, 1 / 8 / 4 / 213