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________________ विभिन्न सम्प्रदायों को श्रमणाचार संबंधी मान्यताएं : 163 ताम्बर परम्परा के सभी ग्रन्थों में क्रम समान है और न ही दिगम्बर परम्परा के सभी ग्रन्थों में समान क्रम अपनाया गया है। अतः यह कहा जा सकता है कि क्रम संबंधी यह भिन्नता भिन्न-भिन्न आचार्यों की कथन शैली की भिन्नता के कारण हुई होगी। मृषावाद विरमण व्रत (सत्य) : सत्य महाव्रत के अन्तर्गत श्रमण मन, वचन और काया तथा कृतकारित और अनुमोदन की नव कोटियों सहित असत्य का परित्याग करता है। आचारांगसूत्र में सत्य को भलीभांति समझने तथा तदनुसार प्रवृत्ति करने की प्रेरणा दी गई है / ' दशवकालिकसूत्र में मृषावाद विरमणवत का कथन करते हुए कहा गया है-श्रमण क्रोध, लोभ, भय या हास्य से न स्वयं मृषा (असत्य) बोलता है, न दूसरों से मुषा बुलवाता है और न ही दूसरों के मषा कथन का अनुमोदन करता है। जो वस्तु जैसी देखी, सूनी या समझी है, उसे उसी रूप में व्यक्त करना इस महाव्रत की विशेषता है। सत्य महाव्रत की याख्या करते हुए मूलाचार में कहा गया है कि श्रमण को ऐसे सत्य वचनों का भी त्याग कर देना चाहिए जिससे दूसरे प्राणियों को पीड़ा पहुंचती हो। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस भाषा के प्रयोग से किसी भी प्राणी को पीड़ा होने की सम्भावना हो, ऐसी भाषा का प्रयोग श्रमण को नहीं करना चाहिए। सत्यव्रत को पांच भावनाएं: ... आचारांगसूत्र तथा समवायांगसूत्र में सत्यव्रत की पांच भावनाएँ इस प्रकार उल्लिखित हैं-(१) अनुवोचिभाषण, (2) क्रोषविवेक, (3) लोभ विवेक, (4) भय विवेक और (5) हास्य विवेक / ___ मूलाचार तथा सर्वार्थसिद्धि में सत्यव्रत को पांचों भावनाओं के नाम तो ये ही बतलाए गये हैं, किन्तु इन दोनों ग्रन्थों में अनुवीचिभाषण को पहले क्रम पर नहीं रखकर पाँचवें क्रम पर रखा गया है।" 1. "पुरिसा सच्चमेव समभिजाणहि" -आचारांगसूत्र, 1 / 3 / 3 / 127 2. दशवैकालिकसूत्र, 4 / 43, 6 / 12 3. "रागादीहिं असच्चं चत्ता परतावसच्चवयणुत्ति" -मूलाचार, गाथा 6 . 4. (क) आचारांगसूत्र , 2015 / 781 (ख) समवायांगसूत्र, 25 / 166 5. (क) मूलाचार, गाथा 338 (ख) सर्वार्थसिद्धि, 7 / 5 / '
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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