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________________ विभिन्न सम्प्रदायों की श्रमणाचार सम्बन्धी मान्यताएं : 1961 षडावश्यक-(१६) समता, (17) स्तव, (18) वन्दना, (19) प्रतिक्रमण, (20) प्रत्याख्यान, (21) व्युत्सर्ग, शेष मूलगुण-(२२) केशलोच (23) अचेलकत्व, (24) अस्नान, (25) क्षितिशयन, (26) अदन्तधावन, (27) स्थितभोजन और (28) एकभक्त व्रत। महावत : श्रमण के मूलगुणों में पाँच महाव्रत प्रमुख हैं। श्रमण के समस्त आचार-विचार एवं व्यवहार का नियन्त्रक तत्व उसके महावत हैं। इसलिए जैन आचार्यों ने महाव्रतों पर विशेष बल दिया है। प्राणातिपात विरमण आदि पाँच व्रतों को महाव्रत कहा गया है। नन्दीसूत्र तथा आवश्यकनियुक्ति में इन पांच महाव्रतों को महान सिद्धि का कारण बतलाया गया है।' पांच महावतों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार हैप्राणातिपात विरमणवत (अहिंसा) : यह प्रथम महाव्रत है। इस व्रत के अनुसार श्रमण बाह्य एवं अभ्यः न्तर दोनों ही प्रकार की समस्त हिंसा से विरत होता है। वह षटकायिक जीवों की रक्षा करने हेतु सदैव तत्पर रहता है। आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के शस्त्रपरिज्ञा नामक अध्ययन में साधक को प्रतिबोधित करते हुए कहा गया है कि जो जितेन्द्रिय, अप्रमत्त और संयमी हैं, वे महापुरुष षटकायिक जीवों की हिंसा से विरत होकर आत्महित की ओर प्रवत्त होते हैं। दशवकालिकसूत्र में प्राणातिपात विरमण व्रत को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जगत में जितने भी त्रस और स्थावर जीव हैं, श्रमण उनकी हिंसा से विरत रहता है / श्रमण न स्वयं हिंसा करता है, न दूसरों से हिंसा करवाता है और न हिंसा करने वाले का अनुमोदन ही करता है।' मूलाचार में प्राणातिपात विरमण व्रत के स्थान पर हिंसा विरति शब्द का प्रयोग हुआ है। .. काम, क्रोध, कषाय, लोभ आदि दूषित वृत्तियों के द्वारा आत्मा के 1. (क) नन्दीसूत्र-हरिभद्रवृत्ति, पृष्ठ 8 (ख) आवश्यकनियुक्ति-हरिभद्रवृत्ति, पृष्ठ 1197 2. आचारांगसूत्र, 111 / 4 / 33 3. दशवकालिकसूत्र 4 / 42, 69 4. मूलाचार, गाथा 4
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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