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________________ जैनधर्म के सम्प्रदाय : 1.9. चर्यार्थ जाते समय आच्छादन का जो प्रावधान स्थापित किया था, उसको मानने वाले "विश्वपंथी" या "बोसपंथी" कहलाने लगे।' यद्यपि इस पंथ के उत्पत्ति स्थल एवं समय आदि के बारे में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता है तथापि इस पंथ की मान्यताओं के सन्दर्भ में विस्तार से उल्लेख हुआ है। इस पंथ के अनुयायो भेरव आदि क्षेत्रपालों सहित तीर्थंकरों को मूर्तियाँ स्थापित करवाते हैं तथा उनको पूजा-अर्चना के लिए सचित्त द्रव्य का उपयोग करते हैं। इस पंथ को एक अतिरिक्त विशेषता का उल्लेख बुलकर ने किया है, उनके अनुसार इस पंथ के भट्टारक भोजन करते समय पूर्णतः नग्न रहते हैं और उस समय उनका एक शिष्य घंटी बजाता रहता है ताकि सामान्यजन वहाँ से दूर रहें। 6. विनम्बर तेरापाय: जिस प्रकार श्वेताम्बर तेरापंथ सम्प्रदाय को उत्पत्ति स्थानकवासो आचार-परम्परा की एक प्रतिक्रिया थी उसी प्रकार दिगंबर तेरापंथ की उत्पत्ति भट्टारकों को आचार-परम्परा को एक प्रतिक्रिया थो / श्वेताम्बर तेरापंथ अमूर्तिपूजक सम्प्रदाय है, किन्तु दिगम्बर तेरापंथ मूर्तिपूजक सम्प्रदाय है। . इस पंथ की उत्पत्ति के सन्दर्भ में दो तथ्य उपलब्ध होते हैं, प्रथम यह कि १७वीं शताब्दी में इस पंथ को सांगानेर निवासी अमरचन्द ने प्रारम्भ किया था।' दूसरा अभिमत यह है कि यह पंथ 1528 ई० में पटना में अस्तित्व में आया था। दोनों अभिमतों से यह फलित होता है कि यह पंथ १६वीं-१७ वीं शताब्दी के लगभग अस्तित्व में आया था। .. आचार विषयक मान्यताओं को दृष्टि से देखें तो इनकी मान्यताएँ बोसपंथी वर्ग से सर्वथा भिन्न हैं। इस मत के अनुयायो मन्दिरों में मात्र तीर्थंकरों की मूर्तियाँ ही स्थापित करते हैं, क्षेत्रपालों एवं यक्ष-यक्षियों की नहीं। जैन धर्म में प्रतिपादित अहिंसा सिद्धान्त के प्रति सजग रहने के कारण इस पंथ के अनुयायी जिन-प्रतिमा का पूजन भी अचित्त द्रव्यों 1. उद्धृत-मध्यकालोन राजस्थान में जैन धर्म, पृ० 121 2. Jain Sects and schools, P. 137 3. मध्यकालीन राजस्थान में जैन धर्म, पृ० 130 4. Jain Sects and Schools, p. 137
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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