________________ 94 : के सम्मान 1. धर्मदासजी महाराज, 2. धन्नाजी महाराज, 3. लालचन्दजी महाराज, 4. मनाजो महाराज, 5. बड़े पृथ्वीराजजी महाराज, 6. छोटे पृथ्वीराजजी महाराज, 7. बालचन्दजी महाराज, 8. ताराचन्दजी महाराज, 9. प्रेमचन्दजी महाराज, 10. खेतशीजी महाराज, 11. पदार्थजी महाराज, 12. लोकमलजी महाराज, 13. भवानीदासजी महाराज, 14. मूलकचन्दजी महाराज, 15. पुरुषोत्तमजी महाराज, 16. मुकुटरायजी महाराज, 17. मनोहरदासजी महाराज, 18. रामचन्दजी महाराज, 19. गुरुसहायजी महाराज, 20. बाषजी महाराज, 21. राम-. रमनजी महाराज और 22. मूलचन्दजी महाराज / १७वीं शताब्दी से लेकर वर्तमान समय तक स्थानकवासी परम्परा में जो भी सम्प्रदाय हैं उनमें से अधिकांश सम्प्रदाय अपनी आचार्य परंपरा इन 22 आचार्यों में से ही किसी एक आचार्य से जोड़ते हैं, यद्यपि इनमें से अधिकांश की परम्परा विलुप्त हो गई हैं / स्थानकवासी परम्परा में जो भी उपसम्प्रदाय विकसित हुए हैं उनका विवेचन हम आगे के पृष्ठों में करेंगे। यहाँ इतना ही उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि मूर्तिपूजा में आई विकृतियों के खिलाफ लोकाशाह के नेतृत्व में क्रांति की लहर उठो थी और उसी के परिणामस्वरूप कई अमूर्तिपूजक सम्प्रदायर्यों का उद्भव "एवं विकास समय-समय पर हुआ था। कान सम्प्रदायों में भो शिथिलाचार एवं बाह्याडम्बरों का प्रवेश हया है। आज अमर्तिपूजक सम्प्रदायों में से कौनसे सम्प्रदाय आगम निर्दिष्ट आचार का निष्ठापूर्वक पालन कर रहे हैं और कौनसे नहीं कर रहे हैं ? यह उल्लेख करना हमारा प्रतिपाद्य विषय नहीं है, इसलिए हम इस विषय को यहीं विराम देकर यहाँ अमूर्तिपूजक परम्परा में विकसित हुए विभिन्न सम्प्रदायों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं। 1. श्रमण संघ : जैनधर्म का स्थानकवासी सम्प्रदाय जब अनेक उपसम्प्रदायों में विभक्त हो गया तो उसे पुनः एक करने की पहल अखिल भारतवर्षीय श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन कान्फ्रेंस ने की। कान्फ्रेंस के कार्यकर्ताओं ने सभी स्थानकवासी सन्तों से सम्पर्क किया। परिणामस्वरूप स्थानकवासी सम्प्रदाय के आचार्यों एवं मुनियों का सन् 1932 में अजमेर में एक सम्मेलन हुआ। वहाँ स्थानकवासी परम्परा के सभी असम्बादामों को पुनः एक करने का प्रयास किया गया, किन्तु कान्पोंस का यह प्रयास सफल नहीं हो सका