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________________ जैनधर्म के सम्प्रदाय : 93 वे इतने प्रभावित हुए कि उनमें से 45 व्यक्तियों ने इनकी मान्यतानुसार ज्ञानमुनिजो द्वारा दीक्षा ग्रहण कर ली और अपने गच्छ का नाम लोकागच्छ रखा। लोकागच्छ का उत्पत्ति समय ई० सन् 1470 माना जाता है।' __ मूर्तिपूजा के विरोध स्वरूप १५वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में विकसित हुई लोकाशाह को इस परम्परा का वर्तमान समय में भी काफी प्रभाव है। आज भले हो यह सम्प्रदाय भी स्थानकवासी, तेरापंथी एवं पुनः उनके विविध उपसम्प्रदायों में विभक्त हो गया हो, फिर भी साहित्य एवं साधना के क्षेत्र में इसका अपना विशिष्ट स्थान है / आज जैन जनसंख्या का लग'भग एक चौथाई भाग इन्हीं सम्प्रदायों एवं उपसम्प्रदायों से जुड़ा है। लोकागच्छ का विभाजन : लोकाशाह के नाम से पहचाने जाने वाले लोकागच्छ में भी कुछ समय पश्चात् बोजामति सम्प्रदाय उत्पन्न हो गया। तपागच्छ को एक पट्टावली में लिखा है-"१५५७ वर्षे लुकांमतमता निर्गत्य बोजाख्य वेषधरेण बीजामति नाममतं प्रवर्तितं / " लोकाशाह के उपरान्त लगभग एक शतक में ही लोकागच्छ निम्न तीन उपगच्छों में विभक्त हुआ . (1) गुजराती लोकागच्छ, (2) नागौरी लोकागच्छ और (3) उत्तरार्द्ध लोकागच्छ। कुछ समय पश्चात् इस मत में भो शिथिलाचार बढ़ने लगा तो १७वीं शताब्दी के पूवार्ध में तीन मुनि-१. लवजीऋषिजी महाराज, 2, धर्मसिंहजी महाराज और 3. धर्मदासजी महाराज लोकागच्छ से पृथक हो गये। इसी विभाजन के परिणाम स्वरूप स्थानकवासो सम्प्रदाय अस्तित्व में आये। ___ इन तीनों मनियों की शिष्य-परम्परा में धर्मदासजी महाराज की शिष्य-सम्पदा सर्वाधिक थी। उनके 99 शिष्य थे, जो कुछ समय पश्चात् 22 उपसम्प्रदायों में विभक्त हो गये और बावीसटोला के नाम से पहचाने जाने लगे। इनके अतिरिक्त लवजीऋषिजी से ऋषि सम्प्रदाय एवं धर्मसिंहजी से कुछ गुजराती सम्प्रदाय अस्तित्व में आये। धर्मदासजी महाराज की शिष्य-मम्पदा से विकसित बावीसटोला इस प्रकार है१. शास्त्री, देवेन्द्रमुनि-श्रमण परम्परा के दिव्य नक्षत्र, उद्धृत-मधुकर मुनि स्मृति ग्रन्थ, सय 4, पृ० 1.
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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