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________________ .92 : बनधर्म के सम्प्रदाय से लेकर 1496 ई. तक के 10 अभिलेखों में मिला है।' इनमें से कुछ अभिलेख ऐसे हैं जिनमें आचार्य धनेश्वरसूरि को नाणावाल गच्छ का . आचार्य बतलाया गया है और कुछ अभिलेखों में इन्हें नाणकीय गच्छ का . आचार्य बतलाया गया है। किन्तु एक भी ऐसा अभिलेख उपलब्ध नहीं हुआ है, जिसमें धनेश्वरसूरि को धनेश्वर गच्छ का आचार्य बतलाया गया हो / अतः कुछ विद्वानों द्वारा कपोलकल्पित इस गच्छ को स्वतन्त्र गच्छ मानना उचित नहीं है। श्वेताम्बर अमूर्तिपूजक सम्प्रदाय : श्वेताम्बर परम्परा में जब मूर्तिपूजक सम्प्रदाय जिन-प्रतिमाओं की पूजा एवं प्रतिष्ठा आदि करने तक ही सीमित होकर रह गये तो अमूर्तिपूजक सम्प्रदाय अस्तित्व में आये। इन सम्प्रदायों ने जैन श्रमणों के तपत्यागमय जीवन पर विशेष बल दिया। साथ ही इन्होंने साधना एवं आचार-मर्यादा में आई शिथिलता एवं कर्मकाण्डी प्रवृति का विरोध किया / अमूर्तिपूजक परम्परा में श्वेताम्बरों में स्थानकवासी एवं तेरापंथी : सम्प्रदाय अस्तित्व में आये हैं। यहाँ हम इन्हीं अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों की उत्पत्ति एवं इनके विविध उपसम्प्रदायों की चर्चा करेंगे। लोकाशाह काल : __ अमूर्तिपूजक परम्परा में लोकाशाह का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। इनका जन्म ई० सन् 1415 में अहमदाबाद में हुआ था। लोकाशाह के समय चैत्यवासी श्रमणों द्वारा जिनपूजा और जिनभक्ति के नाम पर जो कुछ किया जा रहा था उससे जैन धर्म कर्मकाण्डों में सिमट कर रह गया था। तब तत्कालीन स्थिति को सुधारने और धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप को प्रतिष्ठा के लिए लोकाशाह ने धर्मक्रान्ति की / अमूर्तिपूजक परम्परा का उद्भव एवं विकास उनकी इसी क्रान्ति का परिणाम है। अमूर्तिपूजक सम्प्रदाय की उत्पत्ति के सन्दर्भ में कहा जाता है कि - लोकाशाह जब अहमदाबाद में थे तो एक बार अरहट्टवाड़ा, सिरोही, पाटन और सुरत-इन चार नगरों के श्रावक संघ अहमदाबाद आए। वहाँ आकर उन्होंने आगम मर्मज्ञ लोकाशाह के विचारों को सुना, सुनकर 1. प्रतिष्ठा लेख संग्रह, क्रमांक 68, 588, 675, 697, 713, 779, 783, 819, 832, 874
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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