________________ व्यसनसमुद्दशः अतिव्ययोऽपात्रव्ययश्चार्थदूषणम् // 16 // अत्यन्त व्यय करना और अपात्र में बुरे कामों आदि में व्यय करना अर्थ दोष है। हर्षामर्षाभ्यामकारणं तृणांकुरमपि नोपहन्यात् किं पुनर्मनुज्यम् / / 20 // हर्ष और अमषं अर्थात् प्रसन्नता और क्रोध के भावावेश में आकर घास के अंकुर को भी न नष्ट करे फिर मनुष्य को नष्ट करने की तो बात ही क्या है ? श्रूयते हि निष्कारणं भूतावमानिनौ वातापिरिल्वलश्चासुरावगस्त्याशनाद् विनेशतुरिति / / 21 / / . ____ यह सुना जाता है कि जीवों से अकारण द्वेष करने वाले वातापि और इल्वल नाम के दानव अगस्त्य ऋषि के द्वारा भक्षित होकर विनष्ट हो गये। - यथादोषं कोटिरपि गृहीता न दुःखायते // 22 // दोष और अपराध के अनुसार करोड़ रूपया भी छीन लिया जाय तो दुःखदायक नहीं होता। .. अन्यायेन तृणशलाकापि गृहीता प्रजाः खेदयति // 23 // अन्यायपूर्वक यदि तिनका भी छीन लिया जाय तो उससे प्रजा दुःखी होती है। तिरुच्छेदेन फलोपभोगः सकृदेव / / 24 / / पेड़ काट कर फलों का उपभोग एक ही बार तो किया जा सकता है / प्रजाविभवो हि स्वामिनोऽद्वितीयं भाण्डागारमतो युक्तितस्तमु. पयुञ्जीत // 25 // राजा के लिये प्रजा का धन-धान्य से सम्पन्न होना अनुपम और अक्षय भण्डार के समान है अत: उसका उपयोग उसे युक्तिपूर्वक करना चाहिए। (राजपरिगृहीतं तृणमपि काञ्चनीभवति जायते च पूर्वसञ्चितस्याप्यर्थस्यापायः // 26 // तिनके के बराबर तुच्छ भी राजकीय वस्तु का ग्रहण चोरी आदि सोने के समान हो जाती है अर्थात् उसका बहुत दड़ा दण्ड चुकाना पड़ता है जिससे पूर्व संञ्चित भी धन नष्ट हो जाता है) (वाक्पारुष्यं शस्त्रपातादपि विशिष्यते / / 27 / ) वाणी की कठोरता शस्त्र पात से भी अधिक कठोर होती है। (ज्ञानिवयोवृत्तविद्याविभवानुचितं हि वचनं वाक्पारुष्यम् / / 28 / /