________________ नीतिवाक्यामृतम् . 'मनोहर आकृति तथा शरीरवाला, स्वामी के अभ्युदय और देश के कल्याण के विषय में स्थिर बुद्धि रखनेवाला स्वामी के द्वारा यात्मतुल्य समझा जाकर सम्मानित और धन से पुरस्कृत, राजचिह्नों से विभूषित समस्त प्रकार के क्लेश और परिश्रम को सहन करनेवाला और आत्मीयों तथा शत्रुओं से अजेय स्वभाव वाला। सेनापति के दोष(स्त्रीजितत्वमौद्धत्यं व्यसनिता, क्षयव्ययप्रवासोपहतत्वं तन्त्राप्रती. कारः, सर्वैः सह वैरविरोधो, परपरिवादः, परुषभाषित्वमनुचितज्ञता संविभागित्वं स्वातन्त्र्यात्मसंभावनोपहतत्वं स्वामिकार्यव्यसनोपेक्षा सहकारिकृतकार्यविनाशो राजहितवृत्तिषु aa लुब्धत्वमिति सेनापतिदोषाः // 2 // बी के वशीभूत होना, उद्दण्डता, द्यूतमद्यपान आदि व्यसनों में लिप्त. होना, क्षयरोग, व्ययाधिक्य और चिरप्रवास से आक्रान्त होना, शत्रु के द्वारा प्रयुक्त प्रयोगों को दूर करने में असमर्थ, सबके साथ लड़ाई झगड़ा, दूसरों की निन्दा करना, उठोर वचन बोलना, अनुचित बातों को ही जानने वाला, रूपया पैसा बादि दूसरों को बिना बांटे भोगने वाला, स्वतन्त्रता और भास्म सम्मान की भावना से आक्रान्त अर्थात् गुरुजन आदि किसी का भी थोड़ा पंकुश न चाहनेवाला और अपने लिये बहुत सम्मान चाहने वाला, स्वामी के पार्य और दुःखों की उपेक्षा करनेवाला, सहकारियों के कार्यों को बिगाड़ने वाला, राजा के हितकारी कार्यों में ईर्ष्यालु होना और लोभ करना, ये सब सेनापति के दोष हैं। प्रजा का अनुरञ्जन राज्य का मुख्य कर्तव्यस चिरंजीवी राजपुरुषो यो नगरनापित इवानुवृत्तिपरः सर्वासु प्रकृतिषु // 3 // ... . नगर भर के लोगों का कार्य करने वाला नाई जिस प्रकार लोकप्रिय होकर सुखी जीवन व्यतीत करता है उसी प्रकार जो राजपुरुष-राजकर्मचारी समस्त प्रजा के अनुरजन में तत्पर रहता है वह चिरकाल तक राजसेवा में रहता हुणा सुख का उपभोग करता है। [इति सेनापति समुद्देशः]