________________ पुरोहितसमुद्देशः कुछ स्वाभाविक मनः स्थितियां परगृहे सर्वोऽपि विक्रमादित्यायते // 31 // पराये घर में सभी विक्रमादित्य के समान पराक्रम प्रदर्शित करने को उद्यत होते हैं। स खलु महान् स्वकार्येष्विव परकार्येषूत्सहते // 32 // महान वह है जो अपने काम के समान पराये काम में भी उत्साह प्रदशित करे। परकार्येषु को नाम न शीतलः // 33 // दूसरे के कार्य के लिये कौन नहीं मन्दोत्साह होता / स्वभावतः लोग पराये काम के लिये उत्साही नहीं होते / राजासन्नः को नाम न साधुः // 34 // राजा के समीप कौन नहीं साधु बन जाता अर्थात् राजा के समीपवर्ती होने पर राजदण्ड के भय से सभी लोग सद्व्यवहार करते हैं / ___ अर्थपरेष्वनुनयः केवलं दैन्याय // 35 // लोभी से अनुनय-विनय करना केवल अपनी दीनता प्रदर्शित करना है / को नामार्थार्थी प्रणामेन तुष्यति // 36 // कोन धनार्थी प्रणाम से सन्तुष्ट होता है अर्थात् धन मांगने वाला धन पाने से ही प्रसन्न हो सकता है प्रणाम मात्र से नहीं। समस्त आश्रितों के प्रति समान व्यवहार का उपदेशआश्रितेषु कार्यतो विशेषकारणेऽपि प्रियदर्शनालापाभ्यां सर्वत्र समवृत्तिस्तन्त्रं वर्धयत्यनुरंजयति च / / 37 // __ माश्रितों में प्रयोजन-वश किसी विशेष व्यक्ति से अधिक कार्य निकलने पर भी राजा को चाहिये कि वह समस्त आश्रितों के प्रति समान प्रेम संभाषण और दर्शन व्यवहार रक्खे / सर्वत्र सम व्यवहार करने से राज्य की वृद्धि होती है और प्रजा का अनुरजन होता है अर्थात् प्रजा अनुरक्त पनी रहती है। (तनुधनादर्थग्रहणं मृतमारणमिव // 38 // ) - स्वरूप धनवाले अर्थात् दरिद्र से धन लेना मरे हुए को मारने के समान है। (अप्रतिविधातरि कार्यनिवेदनमरण्यरुदितमिव // 36 // जो व्यक्ति कार्य को सिद्धि में असमर्थ हो उससे अपने कार्य के लिये निवेदन करना जंगल में रोने के समान व्यर्थ है। (दुराग्रहस्य हितोपदेशो बधिरस्यापतो गानमिव // 40)