________________ 54 नीतिवाक्यामृतम् स्त्री, धनादि का लोभी पुरुष अधिकारी बनने योग्य नहीं है। अर्थ लोभी मन्त्री के दोषमन्त्रिणोऽर्थग्रहणलालसायां मतौ न राजकार्यमर्थोवा / / 106 // जब मन्त्री को धन को स्पृहा हो जाती है तब न तो राजा की कार्य सिद्धि होती है न धन होता है / उदाहरण द्वारा उक्तनीति का समर्थनविरणार्थ प्रेषित एव यदि कन्यां परिणयति तदा वरयितुस्तप एव शरणम् // 107 // किसी के विवाहार्थ कन्या को देखने के लिये भेजा गया व्यक्ति ही जक. उस कन्या से विवाह कर ले तो वर के लिये तप ही शरण है। प्रसङ्गानुसार आशय है कि यदि मन्त्री स्वयं ही अधिकार और धन-लोलुप हो जाय तो राजा क्या करेगा? दृष्टान्त(स्थाल्येव भक्तं चेद् स्वयमश्नाति कुतो भोक्तुर्मुक्तिः // 108). बटलोई ही अगर भात को स्वयं खाने लगेगी तो भोजन करने वाले को किस प्रकार भोजन मिल सकेगा? , मानवीय शुचिता की सीमातावत् सर्वोऽपि शुचिनिः स्पृहोयावन्न परस्त्रीदर्शनमर्थागमोबा // 10 // तब तक सभी मनुष्य शुद्ध और नि:स्पृह होते है जब तक उनको परस्त्री दर्शन और धनागम नहीं होता है। निर्दोष को दोषी सिद्ध करने से, हानि - (अदुष्टस्य हि दूषणं सुप्तव्यालप्रबोधनमिव // 110 // ) निदोष को दोषी बनाना सोए हुए सर्प को जगाने के समान है। एक बार फटा मन फिर नहीं जुड़ता(सकृद्विघटितं चेतः स्फटिकवलयमिव कः सन्धातुमीपरः // 111 / / ) एक बार फटे हुए मन को स्फटिक के कान के समान कोन दुबारा जोड़ सकता है। मेल की अपेक्षा वर सहज होता हैं(न महताप्युपकारेण चित्तस्य तथानुरागो यथा विरागो भवत्यल्पेनाप्यपकारेण // 112 // ) बहुत बड़े उपकार के कार्य से भी चित्त में उतना अनुराग नहीं उत्पन्न होता जितना कि थोड़े से भी अपकार से विराग होता है /