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________________ नीतिवाक्यामृतम् ___ मन्त्रियों की स्वतन्त्र प्रकृति का दोष स्वच्छन्दाश्च न विजम्भन्ते / / 74 // अनेक स्वतन्त्र प्रकृति के मन्त्री परस्पर एकमत नहीं होते। करने योग्य कार्ययद्बहुगुणमनपायबहुलं भवति तत्कार्यमनुष्ठेयम् / / 75 // ऐसा कार्य करना चाहिए जिसमें गुण वहुत हों और विनाश की सम्भाः वना न हो। __ष्टान्त- तदेव भुज्यते यदेव परिणमति / / 76 // जो वस्तु सुगमता से पच जाने वाली होती है वही खाई जाती है। विशेषार्थ-भोजन के दृष्टान्त से यहां राजा और मनुष्य को कर्तव्य का उपदेश दिया गया है कि जिसका परिणाम मङ्गलकारी हो, अपयश आदि न हो वही कार्य करना चाहिए। ___ यथावणित गुण के एक दो मन्त्रो से भी कार्य निर्वाह यथोक्तगुणसमवायिन्येकस्मिन् युगले वा मन्त्रिणि न कोऽपि दोषः / / 77 // इस उद्देश्य के पांचवें सूत्र में वर्णित गुण समूह यदि एक या दो मन्त्री में मिलते हों तो ऐसे गुण सम्पन्न एक या दो मन्त्री भी रखने में दोष नहीं है। दृष्टान्त - (न हि महानप्यन्धसमवायो रूपमुपलभेत // 78 / ) अन्धों का झुण्ड भी रूप ग्रहण करने में समर्थ नहीं होता अर्थात् मन्त्री संख्या में बहुत हों पर मूर्ख हो तो उनसे कोई लाभ नहीं। दृष्टान्त(अवार्यवीर्यो धुर्यों किन्न महति भारे नियुज्यते / / 76 // क्या उद्दाम बल वाले दो बेल महान् भारवहन के लिये नहीं नियुक्त होते ? राजा के लिये अनेक सहायकों की आवश्यकता बहुसहाये राज्ञि प्रसीदन्ति सर्व एव मनोरथाः / / 82 // जिस राजा के बहुत से सहायक होते हैं उसके सब मनोरथ सिद्ध होते हैं। उक्त मत का समर्थन- . एको हि पुरुषो केषु कार्येष्वात्मानं विभजते // 1 //
SR No.004293
Book TitleNitivakyamrutam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomdevsuri, Ramchandra Malviya
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1972
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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