________________ नीतिवाक्यामृतम राजा के भाग्यदोष का अवसरस दैवस्यापराधो न मन्त्रिणां यत् सुघटितमपिकार्य न घटते // 57 // जब मन्त्रियों द्वारा सुविचारित और सुनियोजित कार्य सिद्ध न हो तब उसमें मन्त्रियों का नहीं किन्तु देव अर्थात् राजा का भाग्य दोष समझना चाहिए। मन्त्री की उपेक्षा का दोष__स खलु को राजा यो मन्त्रिणोऽतिक्रम्य वर्तेत / / 58 / / वह राजा राजा नहीं है जो मन्त्रियों के परामर्श का उल्लंघन करके व्यवहार करता है / अर्थात् हितेषी मन्त्रियों की बातें न मान कर चलने वाला राजा अपना राज्य खो बैठता है। कार्यसिद्धि के लिये सुविचारित मन्त्रणा की आवश्यकतासुविवेचिताद् मन्त्राद् भवत्येव कार्यसिद्धिर्यदि स्वामिनो न दुराग्रहः स्यात् // 56 // राजा यदि हठी नहीं होता तो सुविचारित मन्त्रणा से कार्य सिद्धि अवश्य होती है। राजा के लिये पुरुषार्थ की आवश्यकता(अविक्रमतो राज्यं वणिक खड्गयष्टिरिव // 60 // ) राजा यदि पराक्रम का प्रदर्शन नहीं करता ती उस का राज्य बनिये की तलवार के समान है। विशेषार्थ-व्यापारी आदमी तलवार चलाने में कुशल नहीं हो सकता अतः उसके पास तलवार का होना व्यर्थ होता है उसी प्रकार राजा भी यदि कुछ पौरुष न प्रदर्शित करे तो उसका राज्य व्यर्थ है। नीति शास्त्र की उपयोगितानीतियथावस्थितमर्थमुपलम्भयति / / 61 / / नीति-ज्ञान के द्वारा यथार्थ विषय का अर्थात् कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान हो जाता है। . पुरुषार्थ के लाभ(हिताहितप्राप्तिपरिहारौ पुरुषकारायत्तौ // 62 // ) . हित की प्राप्ति और अहितकापरित्याग अपने. पुरुषार्थ के अधीन है। समय से कार्य करने की आवश्यकताअकालसहकार्यम् अद्यश्वीनं न कुर्यात् / / 63 // विलम्ब से विगड़ जाने वाले कार्य में आज कल. आज-कल करता हुआ विलम्ब न करे / अर्थात् कार्य समय से ही कर डालने पर ठीक होता है।