________________ नीतिवाक्यामृतम् विविध कार्यों को प्रारम्भ करने के साधन और युक्तियों को जानना, पुरुष अर्थात् संग्यबल और द्रव्य अर्थात् कोष बल को रखना, देश और काल विभाग अर्थात् अनुकूल और प्रतिकूल समय तथा स्थान का ध्यान रखना, आनेवाली आपत्ति को दूर करने के उपाय कर लेना और कार्य सिद्धि को चरमलक्ष्य बनाना यह पांच मन्त्रणा के अङ्ग हैं। मन्त्रणा के योग्य स्थान(आकाशप्रतिशब्दवति चाश्रये मन्त्रं न कुर्यात् / / 26 // ) चारों ओर से खुले हुये स्थान में तथा जहां प्रतिध्वनि होती हो ऐसे स्थानों पर मन्त्रणा नहीं करनी चाहिए। ( मुखविकारकराभिनयाभ्यां प्रतिध्वानेन वा मनःस्थमप्यर्थमभ्यूहन्ति विचक्षणाः / / 27 ) .. मुख की चेष्टाओं और हाथ के अभिनयअर्थात् घुमाने फिराने से तथा प्रतिध्वनि अर्थात् शब्दों की गूंज से भी चतुर पुरुष मन की बात जान लिया करते हैं। मन्त्रणा को गुप्त रखने की अवधि(आकार्यसिद्धेरक्षितव्यो मन्त्रः / / 28|| जब तक कार्य सिद्ध न हो जाय तब तक अपनी मन्त्रणा ( सलाहमशविरा ) को गुप्त रखना चाहिए / __ मन्त्रणा के लिये आवश्यक विचारदिवानक्तं चाऽपरीक्ष्य मन्त्रयमाणस्याभिमतः प्रच्छन्नोवा भिनत्ति मन्त्रम् / / 26 // रात और दिन का विचार न करके मन्त्रणा करने वाले की गुप्त मन्त्रणा का रहस्य अपने अनुकूल व्यक्ति अथवा इधर उधर छिपे हुए व्यक्ति प्रकट कर देते हैं। श्रूयते किल रजन्यां वटवृक्षे प्रच्छन्नो वररुचिः-अ-प्र-शि-ख-इति पिशाचेभ्यो वृत्तान्तमुपश्रुत्य चतुरक्षराधैः पादः श्लोकमेकं चकारेति // 30 / / ऐसा सुना जाता है कि रात्रि के समय वट-वृक्ष के ऊपर छिपकर बैठे हुए पररुषि ने पिशाचों के द्वारा "अ-प्र-शि-ख" इन चार अक्षरों से सम्बन्धित वृत्तान्त सुनकर इन चार अक्षरों से प्रारम्भ होने वाले चार पादों के एक श्लोक की रचना की, अनेन तव पुत्रेण प्रसुप्तस्य वनान्तरे / शिखामाक्रम्य पादेन, खङ्गेनोपहतं शिरः / / अन्तर्गत कथा :